और एक परिंदा भी नहीं उड़ता
मांस का टुकड़ा उछालता है कोई
आप सोचते हैं आपने किया शिकार
एक बहुत बड़े बाड़े में आप रहते हैं आजकल
किसी ने बताया नहीं आपको, आप सर्कस में हैं,
आपका एक रिंग मास्टर है, आपसे भी शक्तिशाली ।
श्राद्धभोज के पश्चात
महापात्र लौट रहे थे इन्द्रप्रस्थ से
जयध्वनि गुंजाते, अपने सीने फुलाते
इन्द्रप्रस्थ में उन दिनों अमात्य का प्रताप था
राजा मर चुका था छोड़ कर अथाह सम्पत्ति
अंतिम इच्छा थी उसकी महापात्रों को बुलाया जाए
दया दाक्षिण्य में किसी प्रकार कार्पण्य न होने पाए
अमात्य था राजा का विश्वासपात्र, ऊपर से कवि था वह
श्राद्धभोज को इस प्रकार नाम दिया गया उत्सव का तब
कास के निविड़ वन खिल उठते जब धवल पुष्पों से
अमात्य का बुलावा आता महापात्रों को इन्द्रप्रस्थ से
विलासबहुल प्रासाद में प्रवास का दुर्दमनीय आमंत्रण
आमोद प्रमोद में काट कर उत्सव के दिन
लौट रहे होते प्रसन्नवदन मुदितमन महापात्र जब
राजधानी से कोसों दूर किसी वनप्रान्तर में कृषक
हताशा में तैयार कर रहे होते गले के लिये फन्दा
जवान लोग तब सड़कों पर खा रहे होते लाठियाँ
औरतें छुपने की जगह खोजतीं अँधेरी कोठरियों में
मध्याह्नभोज के बाद बीमार पड़ जाते अबोध शिशु
किन्तु महापात्रों को इन सबसे क्या
वे तो उत्सव के सजीले मंच से सुनाते सुंदर काव्य
और लौटकर अपने अपने गृहजनपद की सीमा में
छोड़ते हुए लम्बी डकार, कहते अमात्य की जय हो,
व्यवस्था यह चलती रहे, इसी में हम सबकी रज़ा है !
- नील कमल
पहले प्रेम को नहीं
पहले घात को याद करता हूँ
पहले कवि को नहीं
पहली करुणा को याद करता हूँ
पहली दवा से पहले
याद करता हूँ पहली चोट को
पहली सड़क जो जाती थी
घर से बाहर उसे याद करूँ
इससे पहले याद आती है पहली ठोकर
पहले-पहल की हर याद से पहले
मुझे वह घाव याद आता है, दो हड्डियों
के संधिस्थल पर टीसता हुआ अविराम ।
- नील कमल
ये जो लाल लाल फूल हैं
हरे के बीच खिले चटक
इन्हें क्या कहती हो तुम ?
अरे ! यह भी नहीं जानते ?
इन्हें कृष्णचूड़ा कहते हैं, ठीक है ?
अच्छा, ये जो पीले पीले फूल हैं उधर
गुच्छों में, शायद पहचानता हूँ मैं इन्हें,
सच सच कहो, ये अमलतास ही हैं न ?
कुछ भी नहीं पहचानते तुम ठीक ठाक
देखो, ये राधाचूड़ा के फूल हैं, ठीक है ?
ठीक है, ठीक है लड़की,
आती है एक ऋतु जिसमें
फूलों के नाम याद नहीं रहते
इन्हीं ऋतुओं में ठीक ठीक पहचाने जाते हैं फूल ।
- नील कमल
इंजन से चौथे डिब्बे में
मेरी बगल में बैठा
यह अधेड़ उम्र हॉकर
टोकरी के फल सारे बेच कर
इतना निश्चिंत कि जल्द ही
शिथिल देह झपकी लेता
रखता है सिर मेरे बायें कंधे पर
थकान से बेसुध उसे कहाँ मालूम
उसके पसीने से भींग रहा मेरा कंधा
'फटाश जल' की बोतलें खुलती हैं
तो मुझे याद आती है अपनी प्यास
चाहता हूँ कि टोक दूँ उसे, कहूँ
सीधे होकर क्यों नहीं बैठते भाई,
लेकिन चुप रहता हूँ, सोचता हूँ
कितने बड़भागी होते हैं कंधे जिनपर
टेक लेकर निश्चिंत सो सकता है मनुष्य
दुःख यह कि चार स्टेशन बाद ही
उतरना होगा अपने भींगे कंधों के साथ ।
(फटाश जल : सियालदह साउथ सेक्शन का एक लोकप्रिय पेय; सस्ते मूल्य वाला बोतलबंद कार्बोनेटेड वाटर ।)
- नील कमल
फुदकती हुई मैना
आ धमकती है बीच सड़क
और ढीला पड़ने लगता है
पाँव का दबाव एक्सीलेरेटर पर
बकरियाँ दलबद्ध
पार करती हैं पिच वाली सड़क
टुनटुन बजती हैं गले की घंटियाँ
भूले से भी नहीं बजाता हॉर्न टूरिस्ट गाड़ी का ड्राइवर
बिना भय के मोर
बच्चों के झुण्ड के साथ पार करता है सड़क
कहीं कोई नहीं होता हैरान इसअद्भुत दृश्य पर
सभ्यता के नक्शे पर एक पिछड़ा इलाका है यह
मनुष्यता की देह यहाँ गीली है पसीने के नमक से
पृथ्वी के सकुचाये मुख पर
मल दिया है किसी ने रक्तपलाश का रंग
पहाड़ की दो चोटियों के फाँक से
सोने की गेंद सा उछल आया है दोल पूर्णिमा का चाँद ।
- नील कमल
पूरब से आई आवाज़, वे आ रहे हैं
पश्चिम से गूँजा नारा, हाँ वे आ रहे हैं
उत्तर-दक्षिण में उनके आने की घोषणाएँ थीं
मुँह उठाये वे आते थे
वे आते थे और सीधे मंचों पर चढ़ जाते थे
मंचों पर चढ़ कर वे कविताओं का पाठ करते थे
जितनी देर वे पाठ करते अपनी कविताएँ
उतनी देर के लिये सोने चले जाते थे हत्यारे
उतनी देर के लिये फूल ही फूल खिल जाते थे
वे प्रेम कविताओं के कवि थे
और हर हाल में बचा लेना चाहते थे प्रेम
प्रेम को बचाने के लिये वे कविताएँ लिखते थे
वे इस कदर डूबे थे प्रेम में
कि फ्रेम के बाहर नहीं देखते थे नज़र उठा कर
फ्रेम के बाहर की दुनिया उनकी दुनिया नहीं थी
वे दर्शनीय कवि थे
वे प्रदर्शनीय कवि थे
किंतु सदा संशय रहता उन्हें अपने विश्वसनीय होने पर ।
- नील कमल
कमला नाम है उसका
देखता हूँ लिखा उसकी नोटबुक पर
वह जाती थी ट्राम में, भाई के साथ कॉलेज के रास्ते
मैं बैठा ठीक पिछ्ली बेंच पर
चेहरे की सुघड़ रेखा इस तरफ से देती दिखाई
और गर्दन पर रोंये कोमल जूड़े के ठीक नीचे
गोद में उसकी किताबें और नोटबुक,
जहाँ उतरना था मुझे वहाँ उतरना न हुआ मेरा ।
अब वक़्त का हिसाब करके निकलता हूँ बाहर
हिसाब वक़्त का मेरे काम से मेल खाता है ऐसा नहीं
अक्सर मेल खाता है वक़्त उनके बाहर निकलने से
अक्सर ही देखता हूँ उन्हें
सोचता मन ही मन, कोई और रिश्ता न सही
वह मेरी सहयात्रिणी तो है ।
निर्मल बुद्धि चेहरा उसका झिलमिल करता हो जैसे
सुकुमार मस्तक से ऊपर को सँवारे गए उसके केश
उज्वल आँखों की निस्संकोच दृष्टि ।
सोचता हूँ मन में, कोई संकट ही आ क्यों नहीं जाता
उद्धार कर सार्थक कर लूँ यह जन्म
रास्ते में कहीं कोई उत्पात
या किसी गुण्डे की स्पर्धा
ऐसा तो होता ही है आजकल
लेकिन भाग्य मेरा मटमैले पानी वाला गड्ढा
बड़ा कोई इतिहास उसमें समाता नहीं
दिन बेचारे मेंढक की तरह एकरस पुकारते
नहीं जिसमें मगरमच्छों घड़ियालों का निमंत्रण
और न ही निमंत्रण किसी राजहंस का ।
एकदिन थी रेलपेल वाली भीड़ ट्राम में
कमला के बगल में बैठा कोई आधा-अंग्रेज,
जी किया, अकारण ही टोपी उछाल दूँ उसके सिर से,
पकड़ के उसकी गर्दन उतारूँ उसे रास्ते पर,
कोई बहाना नहीं मिलता
हाथ कसमसाते रहे मेरे
कि तभी एक मोटा चुरुट सुलगा कर कश लगाया उसने
पास उसके आकर कहा मैंने - 'फेंको यह चुरुट' !
मानो सुना ही नहीं उसने
धुँए के छल्ले उड़ाने लगा वह
मुँह से उसके खींच कर चुरुट मैंने फेंक दिया सड़क पर
वह ताकता रहा गुस्से में मुट्ठियाँ अपनी कसते हुए
लेकिन कहते कुछ न बना उससे
एक छलाँग में कूद कर उतर गया वह ट्राम से
शायद वह पहचानता है मुझे
फुटबॉल के खेल में आखिर नाम है मेरा
और नाम खूब अच्छाखासा है ।
लाल हो उठा मुख उसका
खोल कर किताब पढ़ने का अभिनय वह करती रही
कटाक्ष भर भी नहीं देखा इस वीरपुरुष की ओर
ऑफिस जाते बाबुओं ने कहा - 'बहुत सही किया श्रीमान' !
थोड़ी ही देर बाद वह उतर गई गंतव्य से पहले ही
टैक्सी लेकर वह चली गई ।
अगले दिन नहीं दिखी वह
और उसके अगले दिन भी नहीं
तीसरे दिन देखा उसे
ठेलागाड़ी में जाती थी कॉलेज
समझा, कि गलती की मैंने गँवारों की तरह,
अपनी जिम्मेदारी वह खुद उठा सकती है
मेरी कोई जरूरत वहाँ थी ही नहीं
फिर दोहराया मैंने, 'भाग्य मेरा
मटमैले पानी वाला गड्ढा'
बहादुरी की स्मृति आज केवल
मेंढक की टर्राहट सी बजती है मन में
तय किया मैंने, यह गलती सुधारनी ही होगी ।
खबर आई है, वे लोग दार्जीलिंग आते हैं गर्मियों में
इस बार हवा बदलने की जरूरत मुझे भी महसूस हुई
छोटा सा उनका घर - नाम जिसका मोतिया
रास्ते से उतर कर थोड़ा नीचे की ओर कोने में
पेड़ के झुरमुट में, सामने जिसके बर्फीले पहाड़ ।
सुना, इस बार नहीं आ रहे वे
लौट चलूँ सोचता हूँ कि तभी मिल गये एक भक्त
मोहनलाल -
दुबला शरीर, लम्बा कद, आँख पर चश्मा
कमजोर पेट को दार्जीलिंग की हवा रास आती है
बोले, 'तनुका, मेरी बहन,
नहीं छोड़ेगी मुझे जबतक आपसे न मिलवा दूँ उसे'
बिलकुल छाया सी थी वह
देह इतनी हल्की कि जितने के बिना होना संभव नहीं
फुटबॉल के इस सरदार के प्रति अद्भुत उसकी यह भक्ति
सोचती है वह, मिलने जाना मेरा उसके प्रति दुर्लभ दया,
हाय रे भाग्य का यह खेल !
जिस दिन उतर आऊँगा नीचे, उससे दो दिन पहले
बोली तनुका, 'एक चीज दूँगी आपको जिससे
आपको आती रहेगी हम सबकी याद,
वह एक फूल वाला पौधा' ।
यह कैसा उत्पात, चुप ही रहा मैं सुनकर
तनुका बोली, 'दुर्लभ और कीमती है यह पौधा,
इस देश की माटी में मुश्किल से बच पाता है'
पूछा मैंने, 'नाम क्या है इसका ?'
उसने कहा, ' कैमेलिया' ।
हैरत हुई, और एक नाम तभी कौंध गया मन के अँधेरे में
हँसकर मैंने कहा, 'कैमेलिया,
सहज ही मेल नहीं खाता इसका मन शायद'
तनुका ने जाने क्या समझा, हठात शरमा गयी वह
लेकिन खुश भी दिखी ।
गमले में पौधा लिये चला मैं
देखा, बगल में बैठी सहयात्रिणी असहज थी,
दो डिब्बों वाली गाड़ी में
छुपाया मैंने गमले को निचले डिब्बे में ।
खैर, छोड़िये यह भ्रमण वृत्तांत
जाने दीजिये महीनों की तुच्छता को ।
पूजा की छुट्टियों में उठा परदा
संथाल परगना में,
छोटी सी वह जगह, नाम नहीं बताऊँगा
हवा बदल के लिये घूमने वाले इस जगह के बारे में नहीं जानते ।
कमला के मामा थे इंजीनियर,
यहीं घरबार था जिनका
शालवन की छाया में
गिलहरियों के इस मुहल्ले में
जहाँ दिगंत में दिखते नीले पहाड़
पास ही रेत के बीच बहती जल की धार
पलाशवन में जहाँ तसर की गोटियाँ
भैंसें जहाँ चरती हैं हर्तकी गाछ के तले
पीठ पर जिनके उलंग संथाली लड़के ।
घर मकान कहीं नहीं
इसलिये लगाया मैंने अपना तम्बू नदी के किनारे
संगी नहीं कोई
साथी केवल गमले में वही कैमेलिया ।
कमला आई है माँ के साथ
धूप निकलने से भी पहले
स्निग्ध हेमिल हवा में
शाल बागान के बीच वह जाती है हाथ में छतरी लिये
मैदानी फूल उसके पाँवों में रखते हैं अपना मस्तक
लेकिन क्या देखती भी है वह एक नज़र भर ?
बहुत कम पानी है नदी में
जिसे पैदल ही पार करती है वह
उस पार शीशम के पेड़ तले पढ़ती है कोई किताब
और मुझे वह पहचान गई है, जानता हूँ,
तभी तो जानबूझ कर देखती नहीं मेरी ओर ।
एकदिन देखता हूँ, नदी किनारे रेत पर
वे सब मिलकर करते हैं वनभोज
मन करता है जाकर कहूँ,
'क्या किसी काम नहीं आ सकता मैं ?
नदी से ला सकता हूँ जल भरकर
वन से काठ ला सकता हूँ काटकर
और नहीं तो जंगल में कोई शरीफ भालू
भी क्या नहीं मिल जाता है कभी कभार ?'
देखा उनके दल में एक युवक
शर्ट पहने, रेशम का विलायती जामा,
कमला के पास ही पाँव पसारे
हवाना चुरुट पीता था वह
और कमला, अनमनी सी टुकड़े टुकड़े करती
श्वेतजवा की पंखुड़ियाँ
पास ही पड़ी कोई विलायती मासिक पत्रिका ।
उसी क्षण ज्ञात हुआ,
संथाल परगना के इस निर्जन कोने में
असह्य रुप से अतिरिक्त हूँ मैं, नहीं अँट पाऊँगा कहीं,
लौट जाता उसी क्षण लेकिन एक काम था अभी बाकी
और कुछ ही दिनों में फूटेंगे कैमेलिया के फूल
उन्हें भेजकर पाऊँगा छुट्टी ।
दिनभर कंधे पर बंदूक लिये घूमता हूँ वन जंगल
संध्या से पहले लौटकर गमले को सींचता हूँ
देखता हूँ कली को विकसित होते हुए ।
समय हुआ है आज
उस संथाली कन्या को बुला भेजा है मैंने
जो ले आती है मेरे लिये रसोई के इंधन का काठ
उसी के हाथ भेजूँगा
शाल पत्ते के पात्र में ।
तम्बू के अंदर बैठा पढ़ रहा हूँ जासूसी गल्प
बाहर से मीठे सुर में आती है अवाज, ' बाबू, किसलिए बुलवाया ?'
बाहर आकर देखता हूँ
कैमेलिया का फूल
संथाली कन्या के कान में
श्यामल गालों को आलोकित करता
उसने फिर पूछा, 'किसलिए बुलवाया ?'
कहा मैंने, 'इसी लिये'
और इसके बाद लौट आया कलकत्ता ।
《अनुवाद : नील कमल》
चेहरे ..
कभी आऊँगा उज्जैन तो
आऊँगा जरूर आपके घर
कही जब मैंने यह बात कवि चंद्रकांत देवताले से
हँसते हुए बोले, उज्जैन में और है भी क्या देखने लायक
उज्जैन में दो ही तो चीजें हैं - एक महाकाल, दूसरा देवताले
चौरंगी रोड के चौधरी एस्टेट गेस्टहाउस वाले कमरे में तैरती उस हँसी का गवाह सिर्फ़ मैं था
सच है कि हर शहर का एक चेहरा होता है
जैसे कि चंद्रकांत देवताले का चेहरा था उज्जैन का चेहरा
उज्जैन जहाँ मैं कभी नहीं गया लेकिन जिसे पहचानता रहा इसी तरह
चन्द्रमा को गिटार की तरह बजाने वाला वह कवि तो अब रहा नहीं उज्जैन में
लेकिन एक नया चेहरा उज्जैन का अब भी है जो कविमित्र नीलोत्पल से मिलता है
जाऊँगा कभी उज्जैन तो नीलोत्पल से मिलूँगा
इंदौर जाऊँगा तो जरूर मिलूँगा आशुतोष दुबे से
गोरखपुर जाऊँगा जब भी तो गणेश पाण्डेय से मिलूँगा
जाऊँगा इलाहाबाद तो संतोष चतुर्वेदी से मिलूँगा, मिलूँगा सुबोध शुक्ल से
बनारस जाऊँगा अगली बार तो हमेशा की तरह मिलूँगा ज्ञानेन्द्रपति से गोदौलिया पर
बाँदा जाऊँगा तो मिलूँगा केशव तिवारी से, कानपुर में बाबूपुरवा वाले श्रमिक जी से मिलूँगा
कितनी-कितनी जगहों के कितने-कितने चेहरे बना रखे हैं मैंने
मैं शहरों को और गाँवों को इसी तरह पहचानता रहा हूँ अब तक
कितने धुले-धुले और साफ-साफ नजर आते हैं ये सब दूर से भी
लेकिन जब-जब सोचता हूँ दिल्ली के बारे में सब गड्डमड्ड हो जाता है
इतना मेकअप है दिल्ली के चेहरे पर कि पहचान नहीं पाता दिल्ली को
पूछता हूँ खुद से - कहो नील कमल, किससे मिलोगे जब जाओगे दिल्ली ?
◆
घर ..
(कवि अग्निशेखर के लिए)
कितनी हसरत से कोई आदमी बनाता है एक घर
उसे क्या पता एक दिन कुछ उन्मादी आयेंगे और
कहेंगे उसे अपना घर छोड़ कर चले जाने के लिए
लम्बी एक साँस छोड़ता है वह और चल पड़ता है
मय सरोसामान एकदिन चल पड़ता है अँधेरे में ही
आँखों में नदियों का जल थामे वह चल पड़ता है
सीने बीच धधकती आग छुपाए वह चल पड़ता है
पीठ पर उसके एक बक्सा होता है लोहे का, उसमें
जितना अँटता है सामान उससे ज्यादा छूट जाता है
घर में छूट गए खुशियों के दिन बड़ी दूर तक उसके
पीछे पीछे चलते हैं और थककर घर में लौट जाते हैं
पीछे मुड़कर आखिरी बार के लिए वह देखता है घर
और जलता हुआ पाता है अपने देखे हुए सपनों को
पास उसके भारी गठरी में अब कोई सपना भी नहीं
सपनों से खाली अपनी गठरी उठाये वह चल देता है
किसी एक भयंकर रात में वह घिरा होता है आग से
उसके गले से फूटती है घुटती हुई एक करुण पुकार
पानी पानी पुकारता है वह नींद खुल जाने के बाद तक
और पाता है एक तम्बू ही अब उसका स्थायी निवास है
जलावतनी में बेघर हो गए आदमी की पुकार को सुनो
उसकी भाषा में तुम मत ढूँढ़ो व्याकरण की त्रुटियों को
मत पूछो उससे कि कहाँ कहाँ दस्तखत कर दिए उसने
मत पूछो किन जुलूसों में और क्योंकर चलता रहा वह
घर लुट गया जिसका उसे घर लौटाओ फिर बात करो उससे ।
◆
निर्विरोध ..
कुछ नहीं हुआ
कुछ भी तो नहीं हुआ
सरकार का इकबाल बुलन्द हो
गिनती की हत्याएँ हुईं - कुछ नहीं हुआ
थोड़े लोग जख्मी हुए - कुछ नहीं हुआ
लोग इलाक़ाबदर हुए - कुछ नहीं हुआ
कहीं कुछ नहीं हुआ, कुछ भी तो नहीं हुआ
सरकार, आप फिर चुन लिए गए निर्विरोध !
◆
जगह ..
एक जगह थी
जहाँ आँख मूँद कर
जाया जा सकता था किसी भी वक़्त
अपने कवच उतार कर, एकदम बेफिक्र
एक जगह थी
जहाँ अँधेरे में भी
प्रवेश किया जा सकता था कभी भी
अपने हथियार छोड़कर, बिलकुल बेहिचक
एक ही तो जगह थी
जहाँ के चप्पे-चप्पे को पहचानते थे कदम
जहाँ के रेशे-रेशे में ऐतबार एक था हरदम
मरण फाँद यह कौन रख गया, ठीक उसी जगह ?
◆
बैलट बाबा ..
बैलट बाबा
खून खराबा
कितना और चलेगा
अब तक जानें कितनी चली गई हैं
घर-वर और दुकानें कितनी चली गई हैं
आग लगी है चहुँदिस धू-धू जलता देखो
खड्गहस्त हत्यारा छुट्टा चलता देखो
किससे कौन लड़ेगा झगड़ा यहाँ फँसा है
कहाँ कौन है तगड़ा रगड़ा यहाँ फँसा है
प्रजातंत्र की गाय दुधारू जाने कब से दूह रहे वे
सानी-पानी किए बिना ही दूध मलाई लूट रहे वे
इससे तो बढ़िया पानीपत
और पलासी के मैदानों में वे लड़ते औ' मरते
मध्ययुगी नियमों से इक्कीसवीं सदी के लोकतंत्र
के रक्त सने अध्यायों का ऐसा पाठ न करते ।
◆
[कविता बिहान, दिसम्बर 2018 अंक में प्रकाशित]