Saturday, August 27, 2011

कवि सुकान्त की कविताएँ

महज बीस साल की छोटी उम्र जीने वाले कवि सुकान्त भट्टाचार्या की कविताएँ उनके किसी भी समकालीन कवि की कविताओं पर इक्कीस ही ठहरती हैं । गहन वैचारिक समझ और मनुष्य के दुख दर्द की निष्कपट छवियों के लिए ये कविताएँ मील का पत्थर साबित होती हैं ।

कवि सुकान्त की कविताएँ
(मूल बांग्ला से अनुवाद : नील कमल)






१. सीढ़ियाँ

हम सीढ़ियाँ हैं
रोज हमें रौंदते हुए
तुम चढ़ते हो ऊँचाइयों की ओर
और पलट कर देखते भी नहीं पीछे
हमारी रोज-रोज लहूलुहान होती छातियाँ
बिछी हुई तुम्हारे पैरों के नीचे ।

पता है तुमको भी
तभी तो कालीनों में छुपा कर
रखना चाहते हो हमारे सीनों के जख्म
पर्दा डालना चाहते हो अपने जुल्मों के निशान पर
और पहुँचने नहीं देना चाहते हो दुनिया के कानों तक
अपने गर्वीले पैरों की जुल्म ढाती आहटों को ।

लेकिन हम जानते हैं
इस दुनिया से हमेशा के लिए छुपा नहीं रहेगा
हमारी देह पर तुम्हारे पैरों का आघात ।

बादशाह हुमायूँ की तरह
एक दिन फ़िसलेंगे तुम्हारे भी पैर ।

२. पारपत्र

भूमिष्ठ हुआ जो शिशु आज रात
उसी के मुँह से मिली है खबर
कि पास उसके एक पारपत्र
जिसके साथ खड़ा वह विश्व के द्वार
भर कर एक ज़ोर की चीख
उसने जताया है अपना हक़ जनमते ही ।

नन्हा , निस्सहाय वह
फ़िर भी मुट्ठियाँ भिंची हुई
लहराती फ़हराती
न जाने किस अबूझ अंगीकार में ।
अबूझ उसकी भाषा सबके लिए
कोई हँसता कोई देता मीठी झिड़की ।

मैंने समझी उसकी भाषा मन ही मन में
पाई चिट्ठी नई आने वाले युग की
मैंने पढ़ा वह पहचान पत्र
भूमिष्ठ शिशु की धुँधली, कुहासे से भरी
आँखों में ।

आया है नवीन शिशु
छोड़ देनी होगी जगह उसके लिए
चले जाना होगा हमें व्यर्थ ही
जीर्ण धरा पर मृत ध्वंशस्तूप की ओट ।

जाऊँगा , लेकिन जब तक है जान
हटाऊँगा धरती के सब जंजाल
दुनिया को इस शिशु के रहने लायक
बना जाऊँगा
नवजातक के प्रति यह मेरा दृढ़ अंगीकार ।

और अन्त में निबटा कर सारे काम
अपने लहू से नवीन शिशु को दूँगा आशीर्वाद
हो जाऊँगा इतिहास उसके बाद ।

३. दियासलाई की तीली

मैं दियासलाई की एक छोटी तीली
अति नगण्य , सबकी नजर से ओझल
फ़िर भी बारूद कसमसाता है मुँह के भीतर
सीने में जल उठने को बचैन एक साँस ,

मैं दियासलाई की एक छोटी तीली ।

कैसी उथल-पुथल मच गई उस दिन
जब घर के एक कोने में जल उठी आग
बस इसलिए कि नाफ़रमानी के साथ
बिन बुझाए फ़ेंक दिया था मुझे
कितने घर जला कर किए खाक
कितने प्रासाद धूल में मिला दिए
मैंने अकेले ही - मैं दियासलाई की एक छोटी तीली ।

कितने शहर कितनी रियासतें
कर सकता हूँ मैं सुपुर्दे खाक
क्या अब भी करोगे नाफ़रमानी
क्या तुम भूल गए उस दिन की बात
जब जल उठे थे हम एक साथ एक बक्से में
और चकित तुम - हमने सुनी उस दिन
तुम्हारे विवर्ण मुख से एक आर्त्तनाद ।

हमारी बेइन्तहा ताकत का एहसास
बार-बार करने के बावजूद
तुम समझते क्यों नहीं
कि हम कैद नहीं रहेंगे तुम्हारी जेबों में
हम निकल पड़ेंगे , हम फ़ैल जाएंगे
शहरों कस्बों गाँवों - दिशाओं से दिशाओं तक ।

हम बार-बार जले नितान्त उपेक्षित
जैसा कि जानते ही हो तुम
तुम्हें बस यही नहीं मालूम
कि कब जल उठेंगे हम
आखिरी बार के लिए ।

४. अठारह की उम्र

कितनी दुस्सह यह अठारह की उम्र
कि सिर उठाने के खतरे मोल लेती है

बड़े बड़े दुस्साहसी सिर उठाते हैं
अठारह की उम्र में हमेशा ।

अठारह की उम्र को नहीं कोई भय
यह ठोकर से तोड़ती है पथ की बाधाएँ
इस उम्र में झुकता नहीं कोई मस्तक
अठारह की यह उम्र नहीं जानती है रोना ।

इस उम्र को पता है रक्त दान का पुण्य
यह वाष्प की गति चलने की उम्र है
जीवन देने और लेने की उम्र है यह
इस उम्र में खाली नहीं रहती है झोली
इसी उम्र में सौंपते हैं हम अपनी आत्माएँ
शपथ के शोर में ।

बड़ी खतरनाक है अठारह की उम्र
कि तरो ताजा जिन्दगियों में
उतरती है असहनीय पीड़ा
और इसी उम्र में एक जीवन
पाता है अपनी तेज धार
कानों में आती हैं मन्त्रणाएँ ।

अदम्य है अठारह की उम्र
तूफ़ानों में भटकने की उम्र है यह
मुसीबतों से लड़ते-जूझते  
लहू लुहान होते हैं हम इसी उम्र में ।

अठारह की उम्र में आघात सहते हैं हम
लगातार बिना थके हुए
लाखों लम्बी-लम्बी साँसों में
दर्द से काँपता है थर-थर अठारहवाँ साल ।

फ़िर भी सुनता हूँ जय-जयकार अठारहवें साल की
यही उम्र बची रहती है आपदाओं और आँधियों में
खतरों के आगे बढ़ती है यह उम्र
कुछ नया-नया सा होता है
अठारह की उम्र में ।

डरपोक और पौरुष हीन नहीं है
अठारह की उम्र
यह नहीं जानती रुकना बीच राह में
नहीं कोई भी संशय इस उम्र में ,

अठारह की उम्र मिले इस देश को ।

५. हे महाजीवन

हे महाजीवन , और यह कविता नहीं
अब कठिन कठोर गद्य ले आओ
पद लालित्य झंकार मिट जाए
गद्य के गुरु हथौड़े की चोट से
नहीं चाहिए अब कविता की स्निग्धता
कविता मैं आज तुम्हें देता हूँ छुट्टी
गद्यमय है पृथ्वी भूख के राज में
पूनम का चाँद आज झुलसी एक रोटी ।