Wednesday, May 8, 2019

कैमेलिया / रवींद्रनाथ ठाकुर

कमला नाम है उसका
देखता हूँ लिखा उसकी नोटबुक पर
वह जाती थी ट्राम में, भाई के साथ कॉलेज के रास्ते
मैं बैठा ठीक पिछ्ली बेंच पर
चेहरे की सुघड़ रेखा इस तरफ से देती दिखाई
और गर्दन पर रोंये कोमल जूड़े के ठीक नीचे
गोद में उसकी किताबें और नोटबुक,
जहाँ उतरना था मुझे वहाँ उतरना न हुआ मेरा ।

अब वक़्त का हिसाब करके निकलता हूँ बाहर
हिसाब वक़्त का मेरे काम से मेल खाता है ऐसा नहीं
अक्सर मेल खाता है वक़्त उनके बाहर निकलने से
अक्सर ही देखता हूँ उन्हें
सोचता मन ही मन, कोई और रिश्ता न सही
वह मेरी सहयात्रिणी तो है ।
निर्मल बुद्धि चेहरा उसका झिलमिल करता हो जैसे
सुकुमार मस्तक से ऊपर को सँवारे गए उसके केश
उज्वल आँखों की निस्संकोच दृष्टि ।

सोचता हूँ मन में, कोई संकट ही आ क्यों नहीं जाता
उद्धार कर सार्थक कर लूँ यह जन्म
रास्ते में कहीं कोई उत्पात
या किसी गुण्डे की स्पर्धा
ऐसा तो होता ही है आजकल
लेकिन भाग्य मेरा मटमैले पानी वाला गड्ढा
बड़ा कोई इतिहास उसमें समाता नहीं
दिन बेचारे मेंढक की तरह एकरस पुकारते
नहीं जिसमें मगरमच्छों घड़ियालों का निमंत्रण
और न ही निमंत्रण किसी राजहंस का ।

एकदिन थी रेलपेल वाली भीड़ ट्राम में
कमला के बगल में बैठा कोई आधा-अंग्रेज,
जी किया, अकारण ही टोपी उछाल दूँ उसके सिर से,
पकड़ के उसकी गर्दन उतारूँ उसे रास्ते पर,
कोई बहाना नहीं मिलता
हाथ कसमसाते रहे मेरे
कि तभी एक मोटा चुरुट सुलगा कर कश लगाया उसने

पास उसके आकर कहा मैंने - 'फेंको यह चुरुट' !
मानो सुना ही नहीं उसने
धुँए के छल्ले उड़ाने लगा वह
मुँह से उसके खींच कर चुरुट मैंने फेंक दिया सड़क पर
वह ताकता रहा गुस्से में मुट्ठियाँ अपनी कसते हुए
लेकिन कहते कुछ न बना उससे
एक छलाँग में कूद कर उतर गया वह ट्राम से
शायद वह पहचानता है मुझे
फुटबॉल के खेल में आखिर नाम है मेरा
और नाम खूब अच्छाखासा है ।

लाल हो उठा मुख उसका
खोल कर किताब पढ़ने का अभिनय वह करती रही
कटाक्ष भर भी नहीं देखा इस वीरपुरुष की ओर
ऑफिस जाते बाबुओं ने कहा - 'बहुत सही किया श्रीमान' !
थोड़ी ही देर बाद वह उतर गई गंतव्य से पहले ही
टैक्सी लेकर वह चली गई ।

अगले दिन नहीं दिखी वह
और उसके अगले दिन भी नहीं
तीसरे दिन देखा उसे
ठेलागाड़ी में जाती थी कॉलेज
समझा, कि गलती की मैंने गँवारों की तरह,
अपनी जिम्मेदारी वह खुद उठा सकती है
मेरी कोई जरूरत वहाँ थी ही नहीं
फिर दोहराया मैंने, 'भाग्य मेरा
मटमैले पानी वाला गड्ढा'
बहादुरी की स्मृति आज केवल
मेंढक की टर्राहट सी बजती है मन में
तय किया मैंने, यह गलती सुधारनी ही होगी ।

खबर आई है, वे लोग दार्जीलिंग आते हैं गर्मियों में
इस बार हवा बदलने की जरूरत मुझे भी महसूस हुई
छोटा सा उनका घर - नाम जिसका मोतिया
रास्ते से उतर कर थोड़ा नीचे की ओर कोने में
पेड़ के झुरमुट में, सामने जिसके बर्फीले पहाड़ ।
सुना, इस बार नहीं आ रहे वे
लौट चलूँ सोचता हूँ कि तभी मिल गये एक भक्त
मोहनलाल -
दुबला शरीर, लम्बा कद, आँख पर चश्मा
कमजोर पेट को दार्जीलिंग की हवा रास आती है
बोले, 'तनुका, मेरी बहन,
नहीं छोड़ेगी मुझे जबतक आपसे न मिलवा दूँ उसे'
बिलकुल छाया सी थी वह
देह इतनी हल्की कि जितने के बिना होना संभव नहीं
फुटबॉल के इस सरदार के प्रति अद्भुत उसकी यह भक्ति
सोचती है वह, मिलने जाना मेरा उसके प्रति दुर्लभ दया,
हाय रे भाग्य का यह खेल !

जिस दिन उतर आऊँगा नीचे, उससे दो दिन पहले
बोली तनुका, 'एक चीज दूँगी आपको जिससे
आपको आती रहेगी हम सबकी याद,
वह एक फूल वाला पौधा' ।
यह कैसा उत्पात, चुप ही रहा मैं सुनकर
तनुका बोली, 'दुर्लभ और कीमती है यह पौधा,
इस देश की माटी में मुश्किल से बच पाता है'
पूछा मैंने, 'नाम क्या है इसका ?'
उसने कहा, ' कैमेलिया' ।
हैरत हुई, और एक नाम तभी कौंध गया मन के अँधेरे में
हँसकर मैंने कहा, 'कैमेलिया,
सहज ही मेल नहीं खाता इसका मन शायद'
तनुका ने जाने क्या समझा, हठात शरमा गयी वह
लेकिन खुश भी दिखी ।

गमले में पौधा लिये चला मैं
देखा, बगल में बैठी सहयात्रिणी असहज थी,
दो डिब्बों वाली गाड़ी में
छुपाया मैंने गमले को निचले डिब्बे में ।
खैर, छोड़िये यह भ्रमण वृत्तांत
जाने दीजिये महीनों की तुच्छता को ।

पूजा की छुट्टियों में उठा परदा
संथाल परगना में,
छोटी सी वह जगह, नाम नहीं बताऊँगा
हवा बदल के लिये घूमने वाले इस जगह के बारे में नहीं जानते ।
कमला के मामा थे इंजीनियर,
यहीं घरबार था जिनका
शालवन की छाया में
गिलहरियों के इस मुहल्ले में
जहाँ दिगंत में दिखते नीले पहाड़
पास ही रेत के बीच बहती जल की धार
पलाशवन में जहाँ तसर की गोटियाँ
भैंसें जहाँ चरती हैं हर्तकी गाछ के तले
पीठ पर जिनके उलंग संथाली लड़के ।

घर मकान कहीं नहीं
इसलिये लगाया मैंने अपना तम्बू नदी के किनारे
संगी नहीं कोई
साथी केवल गमले में वही कैमेलिया ।

कमला आई है माँ के साथ
धूप निकलने से भी पहले
स्निग्ध हेमिल हवा में
शाल बागान के बीच वह जाती है हाथ में छतरी लिये
मैदानी फूल उसके पाँवों में रखते हैं अपना मस्तक
लेकिन क्या देखती भी है वह एक नज़र भर ?

बहुत कम पानी है नदी में
जिसे पैदल ही पार करती है वह
उस पार शीशम के पेड़ तले पढ़ती है कोई किताब
और मुझे वह पहचान गई है, जानता हूँ,
तभी तो जानबूझ कर देखती नहीं मेरी ओर ।

एकदिन देखता हूँ, नदी किनारे रेत पर
वे सब मिलकर करते हैं वनभोज
मन करता है जाकर कहूँ,
'क्या किसी काम नहीं आ सकता मैं ?
नदी से ला सकता हूँ जल भरकर
वन से काठ ला सकता हूँ काटकर
और नहीं तो जंगल में कोई शरीफ भालू
भी क्या नहीं मिल जाता है कभी कभार ?'

देखा उनके दल में एक युवक
शर्ट पहने, रेशम का विलायती जामा,
कमला के पास ही पाँव पसारे
हवाना चुरुट पीता था वह
और कमला, अनमनी सी टुकड़े टुकड़े करती
श्वेतजवा की पंखुड़ियाँ
पास ही पड़ी कोई विलायती मासिक पत्रिका ।

उसी क्षण ज्ञात हुआ,
संथाल परगना के इस निर्जन कोने में
असह्य रुप से अतिरिक्त हूँ मैं, नहीं अँट पाऊँगा कहीं,
लौट जाता उसी क्षण लेकिन एक काम था अभी बाकी

और कुछ ही दिनों में फूटेंगे कैमेलिया के फूल
उन्हें भेजकर पाऊँगा छुट्टी ।
दिनभर कंधे पर बंदूक लिये घूमता हूँ वन जंगल
संध्या से पहले लौटकर गमले को सींचता हूँ
देखता हूँ कली को विकसित होते हुए ।

समय हुआ है आज
उस संथाली कन्या को बुला भेजा है मैंने
जो ले आती है मेरे लिये रसोई के इंधन का काठ
उसी के हाथ भेजूँगा
शाल पत्ते के पात्र में ।

तम्बू के अंदर बैठा पढ़ रहा हूँ जासूसी गल्प
बाहर से मीठे सुर में आती है अवाज, ' बाबू, किसलिए बुलवाया ?'
बाहर आकर देखता हूँ
कैमेलिया का फूल
संथाली कन्या के कान में
श्यामल गालों को आलोकित करता
उसने फिर पूछा, 'किसलिए बुलवाया ?'
कहा मैंने, 'इसी लिये'
और इसके बाद लौट आया कलकत्ता ।

《अनुवाद : नील कमल》