Tuesday, May 16, 2023

चार कविताएँ


(१) अमलतास 

गुलमोहर ने

कुहनी गड़ा दी

अमलतास की कमर में,

और पलट कर

थपकी दी अमलतास ने

गुलमोहर की पीठ पर |

ठीक उसी वक्त

खिल उठा कनेर का चेहरा,

पीपल के होठों पर

उतर आई अजीब सी एक चमक,

एक बच्चा कटहल

हरी काँटेदार त्वचा वाला

उमग कर चिपका रहा

अधेड़ पिता के कंधे से

और उसके भीतर सोये

कोये गुदगुदी महसूस करते रहे

गुलमोहर की शरारत पर |

गुलमोहर और अमलतास

हँसते रहे, जैसे

बेखयाली में हँस-हँस कर

दोहरी हुई जाती हों

दो अल्हड़ सहेलियाँ |

वहीं कहीं

पराजित हो दुबका रहा

हिन्दी का एक किताबी मुहावरा

लाल-पीला होता रहा समय का चेहरा

गुस्से से नहीं, प्रेम से तृप्त और अघाया हुआ |

(२) श्रावण

आषाढ़-पिता की गोद से

अभी-अभी उतरा है श्रावण-शिशु |

पृथ्वी का सारा दुःख

पृथ्वी का सारा संताप

धुल गया है बारिश में |

फूलों में रंग है पहले से ज्यादा

पत्तियों में चमक रोज से ज्यादा |

नहा कर खिल उठी है पृथ्वी की देह,

मातृत्व के दर्प में चमकती हुई आदिम स्त्री देह |

(३) दुविधा – एक

उस वक्त

जबकि मेरी कनपटी पर

सटी थी आततायी की बंदूक

ईश्वर को नींद आ गई थी |

ईश्वर की शपथ लेकर

जिन्होंने जताई थी आस्था

दुनिया की सबसे मोटी किताब में

उनके लिए, उस वक्त

संविधान, कबाड़ी वाले के यहाँ

पड़ी किसी किताब से अधिक नहीं था |

तय मुझे करना था,

मारा जाऊँ, एक किताब में

लिखे शब्दों को बचाते हुए

या दोनों हाथ ऊपर कर दूँ |

(४) दुविधा – दो

सच बोलूँगा और मारा जाऊँगा

बोलूँगा झूठ तो थोड़ी देर और

रह जाऊँगा ज़िंदा |

चुप रहूँगा तो शायद

बचा रहूँ कुछ और दिन |

मेरे भीतर छुप कर बैठा

मिडिल क्लास आदमी

चाहता है साध लूँ चुप्पी

और निहायत ही मुश्किल लगे

अगर चुप रहना, तो बोल दूँ झूठ

और बच निकलूँ फिलहाल |

मेरे भीतर तभी सिर उठा कर

खड़ा होता है एक कवि

मेरा कवि मुझे सच कहने को तत्पर करता है |

_________________
अनहद -6 (संपादक : संतोष चतुर्वेदी), इलाहबाद , में प्रकाशित

Thursday, January 26, 2023

आँधियाँ जिस तरह जानती हैं अरण्य को: प्रेमेन्द्र मित्र

आँधियाँ जिस तरह जानती हैं अरण्य को

                      तुमको उसी तरह जानता हूँ मैं,

तेज नदी की धारा को जिस तरह देखता है

                        आसमान का तारा

                        -वैसा ही मेरा देखना।

                         ठहरता नहीं हूँ मैं

मेरे लिए नहीं है आराम का कोई मतलब।


अपनी बेचैनी को मैं कैसे समझाऊँ!

बाती से खुलता है कहीं बिजली का अर्थ?

         सागर का अर्थ दे पाता है सरोवर?

एक अर्थ होता है पालतू पशु की आँखों में

 और ही एक अर्थ जंगली साँप के सीने में;


व्यर्थ है दोनों के बीच का मिलान

अपनी उद्दामता में ही मिलूँगा मैं;

छोड़ दो मुझे वश कर पाने का ख्याल;

              सहज कर पाने का ख्याल।


कौन जानता है मेरा जानना ही हो शायद

                         सचमुच का जानना।

डोल न उठे जबतक आसमान का भी शायद

                    तबतक नहीं कोई अर्थ,

पृथ्वी को भी डोलकर होना होता है सत्य 


तुम हो मेरा आसमान

-मेरे तेज बहाव में ही डोलती 

               तुम्हारी पहचान!


तुम ही मेरा अरण्य!


तुम ही मेरे झंझावातों का 

          ठौर और प्रतिबिम्ब।

[बांग्ला कविता: झड़ जेमोन कोरे जाने अरण्य के] 

कवि: प्रेमेन्द्र मित्र 

मूल बांग्ला से हिंदी अनुवाद: नील कमल 

Sunday, August 8, 2021

बनलता सेन व अन्य कविताएँ - जीवनानन्द दाश


★ बनलता सेन / जीवनानन्द दाश 

हजार वर्षों से मैं राह चलता रहा हूँ पृथ्वी की राह पर
सिंहल समुद्र से बहुत दूर मालय सागर के अँधियारे में
काफी चला हूँ मैं, बिम्बिसार अशोक की धूसर दुनिया में
रहा आया हूँ मैं वहाँ, और दूर विदर्भ नगरी के अँधियारे में
थकी एक रूह मैं, चारों ओर जीवन के समुद्र का फेन
मुझे ज़रा सा चैन देती थी, नाटोर की बनलता सेन ।


ज़ुल्फ़ें उसकी जाने कबकी विदिशा की अँधियारी रैन
चेहरा उसका श्रावस्ती का शिल्प, बहुत दूर सागर में
दिशा भूल वह नाविक जिसकी टूट गई पतवार
देखता हरी घास का देश आँख से दारचीनी द्वीप के अंदर
वैसे ही देखा उसको अँधियारे, पूछा उसने नैन उठाकर, 'कहाँ रहे इतने दिन'
परिंदे के बसेरे जैसी आँखों वाली वह बनलता सेन ।

समूचे दिन के आख़िर में, शबनम की आवाज़ सी
उतर आती है शाम, डैनों से धूप की गंध पोंछ डालती है चील
रंग सारे पृथ्वी के मिट जाने पर, क़लमी नुस्खा होता तैयार
किस्सों की ओट में, जुगनुओं की झिलमिल रोशनी में,
सारे परिंदे घर लौटते हैं - सारी नदियाँ, ख़त्म होता है इस जीवन का लेनदेन
रह जाता सिर्फ़ अँधियारा, रूबरू बैठने को बनलता सेन । 

मूल बांग्ला से अनुवाद: नील कमल 
                         (चित्र गूगल से साभार)

★ घास / जीवनानन्द दाश

नन्हे नींबू-पत्ते सी नर्म हरी रोशनी से
भर उठी है यह पृथ्वी इस भोर वेला में ।

कच्चे बाताबी सी हरी घास- वैसी ही ख़ुशबूदार-
हिरण दाँतों से नोंच लेते हैं ।

मेरा भी मन करता है इस घास की महक हरित मद्य सा
पीता रहूँ गिलास पर गिलास ।

सान दूँ इस घास के शरीर को- आँखों पर घसूँ आँखें,
घास के भीतर घास बन जन्म लूँ, निविड़ किसी घास-माँ की
देह के स्वाद भरे अंधकार से निकलकर ।

(बाताबी= नींबू की प्रजाति के एक फल का बांग्ला नाम, हिंदी में चकोतरा)
मूल बांग्ला से अनुवाद: नील कमल 

Monday, July 26, 2021

अव्वल तो मुझे वहाँ होना ही नहीं था (एक खुली चिट्ठी)


14 सितंबर 2020 का दिन । हिंदी दिवस के अवसर पर पश्चिम बंगाल सरकार की तरफ से राज्य के मुख्यमंत्री ने प्रेस-कॉनफ्रेंस के दौरान पश्चिमबंग हिंदी अकादमी के पुनर्गठन की घोषणा की । इस घोषणा के दौरान मुख्यमंत्री ने 25 सदस्यों की एक सूची का ऐलान किया जो नीचे दी जा रही है ।
आनंद बाजार समूह के समाचार चैनल पर यह घोषणा प्रसारित हो रही थी जिसका लिंक नीचे दिया जा रहा है ।

पच्चीस सदस्यों के नामों की चर्चा कोलकाता में साहित्य-संस्कृति से जुड़े लोगों के बीच स्वाभाविक रूप से होने लगी थी । एक मित्र के संदेश से मुझे मालूम हुआ कि इस सूची में मेरा भी नाम शामिल है । व्यक्तिगत रूप से यह जानकारी मेरे लिए अप्रत्याशित तो थी ही, कहना चाहिए कि यह कुछ हद तक एक झटके की तरह भी था । सत्ता प्रतिष्ठानों से मेरी अरुचि को मित्र जानते हैं । यह अनुमान का विषय है कि किसी न किसी स्तर पर मेरे नाम की अनुशंसा पश्चिम बंगाल सरकार के तथ्य एवं संस्कृति विभाग तक किसी ऐसे व्यक्ति ने की होगी जो मुझे जानता रहा हो ।  पश्चिमबंग हिंदी अकादमी का अतीत में भी पुनर्गठन होता रहा है । मजे की बात यह कि वही लोग मुख्य रूप से इस बार भी नामित किये गए थे थोड़े से कॉस्मेटिक बदलाव के साथ । अर्थात नई बोतल में पुरानी शराब । अवश्य एक सह-अध्यक्ष का नाम दिख रहा था जो नया था । मृत्युंजय कुमार सिंह साहित्य और कला के क्षेत्र में सक्रिय रहे हैं । साथ ही प्रियंकर पालीवाल, आशुतोष सिंह, ममता पाण्डेय जैसे साहित्य-संस्कृति से जुड़े मित्र भी दिख रहे थे । 

यहाँ मेरे सामने विकल्प दो थे । एक तो यह कि इस्तीफा दे दूँ और अलग हो जाऊँ । चूँकि किसी भी स्तर पर मेरी सहमति नहीं ली गई थी इस बाबत, इसलिए इस्तीफा देने में कोई परेशानी भी नहीं थी । दूसरे यह कि भीतर रहकर हस्तक्षेप की कोशिश करूँ । मित्रों से बात की तो राय बनी कि भीतर रहकर हस्तक्षेप किया जाए । अबतक अच्छा कुछ नहीं हुआ है पश्चिमबंग हिंदी अकादमी में लेकिन कोशिश तो की ही जा सकती है । जरूरी होगा तो इस्तीफा तो कभी भी दिया ही जा सकता है । 

इसी बीच पश्चिमबंग हिंदी अकादमी के लिए 5 करोड़ की राशि और उसके नए दफ्तर के आवंटन से संबंधी एक सरकारी घोषणा हुई और एक प्रशासनिक आदेश 23 सितंबर को जारी हो गया । वह आदेश नीचे दिया जा रहा है । 


तो तय यह हुआ कि नोटिफिकेशन जारी होने तक देखते हैं । भारी विस्मय की बात यह हुईं कि 14 सितंबर को मुख्यमंत्री द्वारा स्वयं घोषणा करने के बावजूद यह नोटिफिकेशन अंततः 12 अक्टूबर को जारी हुआ । हैरानी की बात थी कि नोटिफिकेशन में पूर्व-घोषित सह-अध्यक्ष सहित कई सदस्यों के नाम नहीं थे । दूसरे शब्दों में कहें तो इन नामों को हटा दिया गया था । वह नोटिफिकेशन नीचे दिया जा रहा है । 

 यह नोटिफिकेशन अपने आप में बहुत कुछ कह रहा था ।  मुख्यमंत्री की घोषणा के साथ-साथ जबकि नोटिफिकेशन आ जाना चाहिए था यहाँ मामला 14 सितंबर से 12 अक्टूबर तक क्यों खिंच गया ? क्या इसके पीछे कोई निहित उद्देश्य था ? इन प्रश्नों के साफ उत्तर नहीं मिल सकते थे । 

17 अक्टूबर 2020 को एक ह्वाट्सऐप ग्रुप हिंदी अकादमी की तरफ से श्री दीपक गुप्ता, सदस्य सचिव ने क्रिएट किया और इससे हमें जोड़ा । ग्रुप ऐडमिन, सदस्य सचिव व अध्यक्ष सहित कुछ ऐसे व्यक्ति भी थे जिनको मैं नहीं जानता था । तो इस ह्वाट्सऐप ग्रुप में सूचना पोस्ट हुई कि अकादमी की पहली बैठक 21 अक्टूबर 2020 को बंगाल क्लब में होगी । मैंने एजेंडा जानना चाहा । 

तय समय पर पश्चिमबंग हिंदी अकादमी की पहली बैठक बंगाल क्लब में हुई । आदतन मैं वहाँ तय समय से पहले पहुँचा । अध्यक्ष श्री विवेक गुप्ता और सदस्य सचिव श्री दीपक गुप्ता से वहीं मेरा प्रथम परिचय हुआ । उत्सव जैसा माहौल था बंगाल क्लब के उस सभागार में । सदस्यगण उत्साहित दिख रहे थे । सबके पास कुछ प्रस्ताव थे । अध्यक्ष ही मीटिंग का संचालन भी कर रहे थे जोकि कायदे से सचिव को करना चाहिए था । मीटिंग का मूड कुछ ऐसा था कि 5 करोड़ की लॉटरी लग गई है और इसे वित्तीय वर्ष के भीतर ही खर्च कर लेना है । मुझे सबसे आखिर में बोलने का अवसर मिला । मैंने पूछा कि पश्चिमबंग हिंदी अकादमी की नियमावली, उसका अपना संविधान क्या है । मैंने नोट किया कि यह बात अध्यक्ष को पसंद नहीं आई । मुझे याद है कि मैंने वहाँ यह भी कहा था कि जब हम किसी संस्था के साथ जुड़ते हैं तो उसके अच्छे कामों के साथ उसके बुरे कामों के इतिहास का बैगेज भी हमारे ऊपर होता है । मैं सदस्यों को अकादमी की दीर्घ अकर्मण्यता और उसकी व्यर्थता याद दिलाना चाह रहा था और साथ ही आसन्न चुनौतियाँ भी । मैंने वहाँ यह भी कहा कि जब मैं यहाँ से बाहर निकलूँगा तो मुझसे पूछा जाएगा कि पश्चिमबंग हिंदी अकादमी की मीटिंग ऐसे विलासबहुल जगह पर क्यों हो रही है । मुझे याद है कि मैंने बहुत साफ शब्दों में वहाँ रिफ्रेशमेंट के नाम पर आयोजित भोज में शामिल होने से इनकार कर दिया था और चाय तक नहीं पी । मैंने यह भी कहा कि आगामी किसी भी बैठक में न तो मैं चाय-नाश्ता में शामिल रहूँगा और न ही किसी किस्म का टीए-डीए क्लेम करूँगा । अगर इससे दो पैसे बचते हैं तो उन्हें अकादमी के काम में इस्तेमाल किया जाए । अपनी बात कहकर मैं मीटिंग से निकल आया था । 
अकादमी की दूसरी मीटिंग अगले ही महीने 30 नवंबर को सरकार द्वारा आवंटित हेमन्त भवन में  हुई जिसमें कई सदस्य ऑनलाइन जुड़े । ये दोनों ही बैठकें चर्चा के लिहाज से गंभीर बैठकें नहीं थी । अध्यक्ष का पूरा जोर इस बात पर रहता था कि जो फैसले उन्होंने लिए हैं उनको अमली जामा पहनाने के लिए सदस्यों की रजामंदी जैसे तैसे ले लेनी है ।  इस दरम्यान यह साफ हो चला कि अध्यक्ष काम कैसे करना चाहते हैं । मोटे तौर पर उन्होंने चार समितियाँ बनाने की बात कही जिसमें कौन लोग होंगे यह वे ही तय करेंगे और उनसे सीधे रिपोर्ट लेंगे । अध्यक्ष के द्वारा चुने समिति के संयोजक यदि जरूरी समझेंगे तो बाकी के सदस्यों के साथ मशविरा करेंगे । अर्थात बाकी सदस्यों की भूमिका बस इतनी रही कि वे समय समय पर आयें और प्रस्तावों का अनुमोदन कर अपने-अपने घर जाएँ । यह एक ऐसा मोड़ था जहाँ चुप नहीं बैठा जा सकता था । दिसम्बर 2020 और जनवरी 2021 के महीनों में अकादमी की कोई बैठक नहीं बुलाई गई थी । 

इस दरम्यान मैंने दो पत्र लिखे । एक तो पश्चिम बंगाल सरकार के तथ्य एवं संस्कृति विभाग के सचिव को, क्योंकि अकादमी इसी विभाग के अधीन काम करती है । दूसरा पत्र मैंने सीधे अकादमी अध्यक्ष को संबोधित करते हुए लिखा । ये दोनों ही पत्र मैंने ई-मेल के माध्यम से संबंधित व्यक्तियों को भेज दिया । ये दोनों ही पत्र यहाँ नीचे दिए जा रहे हैं । 

पत्र-1

पत्र- 2 


आगे की घटना यह कि पश्चिमबंग हिंदी अकादमी की तीसरी मीटिंग सिलीगुड़ी में 26 फरवरी को बुलाई गई । 

सिलीगुड़ी में होने वाली तीसरी मीटिंग कई मायनों में तात्पर्यपूर्ण रही । एक तो यह कि यह बैठक लगभग तीन महीनों के अंतराल पर होने जा रही थी । दूसरे 30 नवंबर की बैठक की कार्य-विवरणी इस बैठक से एकदिन पूर्व अर्थात 25 फरवरी को सदस्यों को ई-मेल के मार्फ़त भेजी गई थी । इसमें कई त्रुटियाँ और विरोधाभास थे । माहौल ऐसा था कि किसी भी दिन राज्य में विधानसभा चुनावों की घोषणा हो जाएगी और मॉडल कोड ऑफ कंडक्ट लागू हो जाएगा । 

मैंने सिलीगुड़ी की इस मीटिंग में शिरकत के लिए अपने स्तर पर पहले ही जाने-आने का रेल टिकट बुक कर लिया था और विश्राम के लिए न्यू जलपाईगुड़ी स्टेशन के पास ही एक साधारण से लॉज में एक कमरा भी बुक कर लिया था । 26 फरवरी की दोपहर तैयार होकर मैं सिलीगुड़ी के मैनाक टूरिस्ट लॉज पहुँच गया जहाँ पश्चिमबंग हिंदी अकादमी की तीसरी बैठक होने वाली थी । मैंने देखा कि काफी गहमागहमी थी वहाँ । अन्य सदस्यों के भोजन और आवास की व्यवस्था वहीं थी । कुछ लोग तो एकदिन पहले ही वहाँ पहुँचे हुए थे । बहरहाल यह मीटिंग इस अर्थ में खास थी कि इस मीटिंग की पूरी वीडियो रेकॉर्डिंग अध्यक्ष के निर्देश पर उनके विशेष सहायक कर रहे थे । इस मीटिंग से ऐन पहले सचिव सदस्य श्री दीपक गुप्ता, हिंदी अकादमी के दायित्व से अलग हो गए थे और नए सदस्य सचिव, मुकेश कुमार सिंह इस मीटिंग में पहली बार शिरकत कर रहे थे । 
इसी दिन शाम के वक़्त अकादमी द्वारा आयोजित नाट्य-उत्सव का उद्घाटन होना था जिसके लिए उमा झुनझुनवाला अपनी टीम के साथ यहाँ पहले से ही मौजूद थीं । मीटिंग के दौरान जानकारी मिली कि नाट्य उत्सव के लिए कलाकारों और टेक्नीशियंस का भुगतान किया जाना है जिसकी व्यवस्था नहीं हो पाई है । उमा झुनझुनवाला इस बात को लेकर काफी परेशान दिख रही थीं । अध्यक्ष ने सारा दोष पूर्व सचिव दीपक गुप्ता पर डालकर अपना पल्ला झाड़ लिया । नए सचिव मुकेश कुमार सिंह ने सूचित किया कि इसी दिन शाम को चुनावों की घोषणा हो जाएगी और तत्काल प्रभाव से मॉडल कोड ऑफ कंडक्ट भी लागू हो जाएगा, लिहाज़ा नाट्य उत्सव वाले आयोजन का क्या भविष्य होगा इस बाबत वे विभाग से बात करेंगे । भुगतान का मामला फँस चुका था क्योंकि नए सचिव के अनुसार उन्होंने अभी अपना अकादमी का प्रभार ग्रहण नहीं किया था । बहरहाल इस प्रकरण पर उमा झुनझुनवाला बेहतर रोशनी डाल सकती हैं । साधारण सदस्यों के पास अकादमी के आयोजन, उसकी तैयारी अथवा उसके बजट की कोई जानकारी नहीं थी लिहाजा वे उतना ही जान रहे थे जितना मीटिंग में सुन रहे थे । 

इसी मीटिंग में एक और बात घटित हुई और वो यह कि पश्चिमबंग हिंदी अकादमी के लिए उसकी नियमावली तैयार करने की जिम्मेदारी मुझे ही दे दी गई । संदर्भ के लिए पश्चिमबंग बांग्ला अकादमी की नियमावली की एक प्रति देते हुए अध्यक्ष ने इस काम के लिए मुझे 30 दिन का समय दिया । मैंने अध्यक्ष को टोकते हुए उन्हें आश्वस्त किया कि यह काम मैं अगले 15 दिन में ही कर दूँगा । मुझे याद है कि मीटिंग में हाजिर मेम्बरान ने तालियाँ बजाकर और मेजें थपथपा कर मेरे आश्वासन का स्वागत किया था ।

मीटिंग में अध्यक्ष ने जब मुझे बोलने को कहा तो मैंने सीधे डिक्शनरी के प्रकाशन के प्रसंग में यह सवाल उठाया कि पूर्व सचिव दीपक गुप्ता से मुझे ज्ञात हुआ है कि इस बाबत 4 करोड़ 19 लाख की राशि का अनुमोदन-प्रस्ताव सरकार को भेजा गया है, यह बात मीटिंग में कभी क्यों नहीं रखी गई । अध्यक्ष के लिए यह असहज करने वाला प्रश्न था । मीटिंग के दौरान इस प्रश्न पर काफी तीखा संवाद हुआ । कई सदस्यों की आँखें फैल गई थीं यह सुनकर । अध्यक्ष ने आक्रामक होते हुए इस बात से साफ इनकार किया और कहा कि जिसने आपको जानकारी दी है उसी से पूछिए । कहना चाहिए कि इस प्रसंग के बाद मीटिंग का छंद बिगड़ गया । जल्द ही मीटिंग खत्म हुई और लोगबाग भोजनकक्ष की तरफ बढ़ गए । मैं वहाँ से सीधे अपने होटल के कमरे पर आ गया । उसी शाम मुझे वापसी की ट्रेन पकड़नी थी । 

26 फरवरी वाली मीटिंग की कार्य-विवरणी 22 जुलाई तक अर्थात अकादमी में मेरे सदस्य रहते मुझे नहीं मिली थी । बहरहाल, यहाँ यह कह देना जरूरी है कि पश्चिमबंग हिंदी अकादमी के लिए नियमावली तैयार करने के लिए मैंने यहाँ की बांग्ला अकादमी के अतिरिक्त दिल्ली की हिंदी अकादमी की नियमावली का भी अध्ययन किया और ड्राफ्ट तैयार करके अकादमी अध्यक्ष सहित सभी सदस्यों को ई-मेल के मार्फ़त 9 मार्च 2021 को ही भेज दिया । भेजे गए ई-मेल का एक स्क्रीनशॉट नीचे दिया जा रहा है । 
इस ड्राफ्ट नियमावली को नीचे दिए गए लिंक पर जाकर देखा जा सकता है । 

यहाँ एक बात और दर्ज कर देनी चाहिए । इन्हीं दिनों मेरे मन में कई दफा यह ख्याल आता रहा कि मुझे अकादमी की सदस्यता से इस्तीफ़ा देकर इससे अलग हो जाना चाहिए । लेकिन परिस्थितियाँ ऐसी थीं कि चुनावी माहौल में इस्तीफे का गलत संदर्भ निकाला जा सकता था । माहौल ऐसा था उनदिनों कि राजनैतिक गलियारों में किसी भी इस्तीफे को राजनैतिक रंग देना स्वाभाविक था । हालांकि अकादमी उस तरह से राजनैतिक रंग वाली संस्था नहीं थी तथापि यह तथ्य है कि अकादमी अध्यक्ष स्वयं शासक दल की तरफ से विधायक प्रत्याशी थे और ऐसे में मेरा इस्तीफ़ा गलत राजनैतिक आशयों से जोड़ा जा सकता था । लिहाजा बहुत सोच विचार के बाद मैं इस ख्याल से उन दिनों विरत रहा । 

इस दरम्यान पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनाव हो गए और नई सरकार बन गई । बीते 21 जून 2021 को पश्चिमबंग हिंदी अकादमी के पुनर्गठन के बाबत एक नोटिफिकेशन जारी हुआ । यह नोटिफिकेशन नीचे दिया जा रहा है । 


21 जून 2021 को जारी नोटिफिकेशन के बाद एक महीने के अंतराल में कोई मीटिंग नहीं हुई और यह अकारण नहीं था । 22 जुलाई 2021 को पुनः पश्चिमबंग हिंदी अकादमी के पुनर्गठन के बाबत एक नया नोटिफिकेशन जारी होना था और कितनी अच्छी बात है कि मुझे इस बार यहाँ नहीं होना था । मेरे लिए यह वाकई बड़ी प्यारी बात थी । 

ये बातें यहाँ किसी व्यक्तिगत आग्रह से नहीं रख रहा हूँ बल्कि इसलिए रख रहा हूँ कि जितने भी दिन इस अकादमी का सदस्य रहा उन दिनों के लिए मेरी जवाबदेही राज्य के हिंदी समाज के प्रति है और राज्य के हिंदी समाज को यह जानने का पूरा हक है कि वहाँ रहते हुए मैंने क्या किया । 

और आखिर में दिल की बात कि.. अव्वल तो मुझे वहाँ होना ही नहीं था । साहिर लुधियानवी के लफ़्ज़ों में कहूँ तो, "तुम्हारी है तुम ही संभालो ये दुनिया" । 

- नील कमल 



Saturday, April 17, 2021

চারটি কবিতা


১.
কেন যে ঘুম ভেঙে যায়..

ঘুমোতে পারিনি অনেক রাত
এক দুঃস্বপ্ন কেবল তাড়া করে ।

লক্ষ লক্ষ মানুষ
পিঁপড়ের মতো হাঁটছে রাজপথে
রেল লাইনের ধারে ছড়িয়ে আছে
রক্তমাখা রুটি !

ক্লান্তমুখ ক্ষুধার্ত শিশুটি
মায়ের আঁচল ছেড়ে দিয়ে
আমার দিকে আঙ্গুল তুলে
প্রশ্ন করে, ঘুমোতে পারছ তুমি ?

মাত্র পাঁচ'শ টাকা তোলার জন্য
মায়ের বয়সী পাড়ার এক মহিলা
তিন ঘন্টা ধরে ব্যাংকের লাইনে দাঁড়িয়ে ।

ইউনিভার্সিটির গেটের বাইরে
আমার ছেলের বয়সী তরুণেরা
যাদের প্রেম করার কথা ছিল
যাদের গান গাইবার দিন ছিল
যাদের স্বপ্ন দেখার বয়স ছিল
তাঁরা মিছিলে হেঁটে চলেছে
পুলিসি জুলুমের প্রাতিবাদে ।

আমার চেনা সেই কাঠমিস্ত্রি
এসেছে বাড়িতে অনেকটা পথ হেঁটে
ভেসে উঠছে তাঁর মুখে কাজ হারানোর
এক অভাবনীয় যন্ত্রণা
আমি জানি ওর একটা কাজ চাই ।

চাকরি হারানো পাড়ার ছেলেটি
ভ্যানে করে মাছ বিক্রি করতে নেমেছে
হাঁক দিয়ে চলেছে সে, মাছ লাগবে মাছ !

একমুখ সাদা দাড়ি
হাফ পাঞ্জাবি পরা মানুষটি, এতকিছুর পরও
বলছেন মানুষ নাকি এখন ভীষন ভালো আছে
হাওয়াই চটি পায়ে, হাঁসিমুখ মহিলাটিও তেমনি
বলছেন মানুষ নাকি এখন ভীষন ভালো আছে ।

দিল্লি থেকে কলকাতা জুড়ে
এত এত উন্নয়নের গল্প সল্প
অথচ কবির ঘুম ভেঙে যায় মাঝরাতে ।

কলকাতা থেকে দিল্লি
যারা ক্ষমতায় মেতে আছে
তাদের উদ্দেশ্যে একটাই কথা

যে দেশে মানুষগুলি পিঁপড়ের মত হাঁটে
যে দেশে অবোধ শিশু না খেয়ে কষ্ট পায়
মায়েরা অল্প টাকার জন্য লাইনে দাঁড়ায়
যুবকেরা অকারণে পুলিসের তাড়া খায়
যে দেশে পাড়ার কাঠমিস্ত্রি কাজ পায় না
শিক্ষিত ছেলেরা মাছ বিক্রি করতে নামে
মাঝরাতে যে দেশে কবির ঘুম ভেঙে যায়

কারা ভালো আছে
কেমন করে তাঁরা ভালো আছে
কেউ কি বলতে পারবে আমায়
সত্যি সত্যি এটাকি ভালো দেখায় ?

মাঝরাতে কেন আমার ঘুম ভেঙে যায় !

২.
এমনটা তো
চাইনি আমি ।

মাথায় যাদের
বসিয়েছিলাম
বুকে যাদের
জড়িয়েছিলাম
যুদ্ধশেষে ছদ্মবেশে
পিঠে ছুরি মারবে তাঁরা
স্বপ্নে ভেবে পাইনি আমি ।

ঘর বেঁধেছি
নদীর বাঁকে
ঢেউ যেথা
খেলতে থাকে
জোয়ার ভাটা ওঠানামায়
ঘর বাঁচাতে পাইনি আমি ।

এমনটা তো চাইনি আমি ।

৩.
পৌষ মাসের কোনো এক নির্জন বিকেলে
মিষ্টি রোদ্দুর যখন মাঠের কোনে নাম না জানা
একটি ফুলের পিঠে হাত বুলিয়ে আদর করছিল
আমি গাছের সবুজ রঙে লিখেছি
নদীর লাজুক গালে একটি গোপন চিঠি
সে চিঠি আজও ভেসে চলেছে অনন্ত পথ ।

৪.
শীত এখনও বিদায় নেয় নি
সবুজ জামা গায়ে দাঁড়িয়ে পলাশ বন
বসন্ত কি হারিয়েছে কোথাও ?
এটা নাকি আগুনের ফুল ফোটার সময় ।
পলাশ না দেখে ফিরে আসতে আসতে
ভাবছি একটা এফআইআর করে যাব
বসন্তের নামে ।
- নীল কমল 
("তালতলের হাট", এপ্রিল ২০২১ সংখ্যায় প্রকাশিত)

Wednesday, January 13, 2021

उम्मीद न करें जनाब



इतना साधु कभी हो नहीं पाया
कि हत्यारे से कहूँ जाओ माफ़ किया

दुःख के पोखर में जिसने डुबोया
दुःख की नदी में डूबकर मरे यही चाहा

मुट्ठीभर फल खाने वालों के लिए
कोटि कोटि जन को कर्म की नसीहत करने वाले
धर्मग्रंथ को क्यों न फूँक कर ताप लूँ इसी जाड़े में

पिद्दी सी प्रजा हूँ तो क्या
जिस राजा ने नरक बनाया जीवन जन जन का
सरापता हूँ मर जाये जैसे ही करे अगला अन्याय

बेईमान न्यायाधीश लिखने को हो
जब कोई फैसला वंचित जन के हक़ के ख़िलाफ
कोढ़ फूटे उसकी अँगुलियों में और कलम छूट जाए

कवि से उम्मीद न करें जनाब
कि करेगा वह हुस्न और इश्क़ की बातें ऐसे वक़्त
तिलमिलाहट से न भर दे कागज पर छपी कविता
उसे कुत्ते की पूँछ में बाँध दीजिए ।

- नील कमल 

Saturday, January 2, 2021

अवनी क्या घर पर हो - शक्ति चट्टोपाध्याय



सोया पड़ा मुहल्ला सारा भींचके सब दरवाजे
खटखट करती रात सुनूँ मैं केवल साँकल बाजे
अवनी, क्या घर पर हो ?

बारिश का पानी गिरता है यहॉं बारहों मास
बादल फिरते जैसे कोई गाय विचरती जाय
द्वार छेंककर खड़ी
विमुख वह लंबी हरियल घास
अवनी, क्या घर पर हो ?

अर्धलीन गहरी पीड़ा में डूबा
जब सो जाता, रात बजाती साँकल
तब सहसा मैं सुन पाता
अवनी, क्या घर पर हो ?

मूल कविता : शक्ति चट्टोपाध्याय
बांग्ला से हिंदी भाषांतर : नील कमल