Sunday, August 8, 2021

बनलता सेन व अन्य कविताएँ - जीवनानन्द दाश


★ बनलता सेन / जीवनानन्द दाश 

हजार वर्षों से मैं राह चलता रहा हूँ पृथ्वी की राह पर
सिंहल समुद्र से बहुत दूर मालय सागर के अँधियारे में
काफी चला हूँ मैं, बिम्बिसार अशोक की धूसर दुनिया में
रहा आया हूँ मैं वहाँ, और दूर विदर्भ नगरी के अँधियारे में
थकी एक रूह मैं, चारों ओर जीवन के समुद्र का फेन
मुझे ज़रा सा चैन देती थी, नाटोर की बनलता सेन ।


ज़ुल्फ़ें उसकी जाने कबकी विदिशा की अँधियारी रैन
चेहरा उसका श्रावस्ती का शिल्प, बहुत दूर सागर में
दिशा भूल वह नाविक जिसकी टूट गई पतवार
देखता हरी घास का देश आँख से दारचीनी द्वीप के अंदर
वैसे ही देखा उसको अँधियारे, पूछा उसने नैन उठाकर, 'कहाँ रहे इतने दिन'
परिंदे के बसेरे जैसी आँखों वाली वह बनलता सेन ।

समूचे दिन के आख़िर में, शबनम की आवाज़ सी
उतर आती है शाम, डैनों से धूप की गंध पोंछ डालती है चील
रंग सारे पृथ्वी के मिट जाने पर, क़लमी नुस्खा होता तैयार
किस्सों की ओट में, जुगनुओं की झिलमिल रोशनी में,
सारे परिंदे घर लौटते हैं - सारी नदियाँ, ख़त्म होता है इस जीवन का लेनदेन
रह जाता सिर्फ़ अँधियारा, रूबरू बैठने को बनलता सेन । 

मूल बांग्ला से अनुवाद: नील कमल 
                         (चित्र गूगल से साभार)

★ घास / जीवनानन्द दाश

नन्हे नींबू-पत्ते सी नर्म हरी रोशनी से
भर उठी है यह पृथ्वी इस भोर वेला में ।

कच्चे बाताबी सी हरी घास- वैसी ही ख़ुशबूदार-
हिरण दाँतों से नोंच लेते हैं ।

मेरा भी मन करता है इस घास की महक हरित मद्य सा
पीता रहूँ गिलास पर गिलास ।

सान दूँ इस घास के शरीर को- आँखों पर घसूँ आँखें,
घास के भीतर घास बन जन्म लूँ, निविड़ किसी घास-माँ की
देह के स्वाद भरे अंधकार से निकलकर ।

(बाताबी= नींबू की प्रजाति के एक फल का बांग्ला नाम, हिंदी में चकोतरा)
मूल बांग्ला से अनुवाद: नील कमल 

2 comments:

  1. अनूठी कविता का सुंदर अनुवाद

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