बांग्ला के विलक्षण कवि विनय मजुमदार के यहां प्रेम कोई आध्यात्मिक वस्तु भले ही न हो किन्तु वह पवित्र अवश्य है- प्रकृति की तरह, फूलों,झरनों,पहाड़ों और नदियों की तरह। यह अस्थि-मज्जा से युक्त, रक्त-मांस से भरपूर स्पन्दित प्रेम है। कवि की ही तरह उसकी काव्य-भाषा भी विलक्षण है। प्रस्तुत है कवि की कुछ कविताओं के हिन्दी अनुवाद, जो उनकी प्रतिनिधि कविताओं के संकलन से चयनित हैं:
(मूल बांग्ला से सभी अनुवाद- नील कमल) ।
(मूल बांग्ला से सभी अनुवाद- नील कमल) ।
१.अकाल्पनिक
तुम्हारे भीतर आऊंगा, हे नगरी,
तुम्हारे भीतर आऊंगा, हे नगरी,
कभी-कभी चुपचाप
बसन्त में कभी, कभी बरसात में
जब दबे हुए ईर्श्या-द्वेष
पराजित होंगे इस क़लम के आगे
तब, जैसा कि तुमने चाहा था,
बसन्त में कभी, कभी बरसात में
जब दबे हुए ईर्श्या-द्वेष
पराजित होंगे इस क़लम के आगे
तब, जैसा कि तुमने चाहा था,
एक सोने का हार भी लाऊंगा उपहार।
तुम्हारा सर्वांग ज्यों इश्तहार
यौवन के बाज़ार का, फिर भी तुम्हारे पास आकर
महसूस होता है, जैसे तुम्हारी अपनी
एक तहज़ीब है, सिर्फ़ तुम्हारी,
तुम्हारा सर्वांग ज्यों इश्तहार
यौवन के बाज़ार का, फिर भी तुम्हारे पास आकर
महसूस होता है, जैसे तुम्हारी अपनी
एक तहज़ीब है, सिर्फ़ तुम्हारी,
और जो आदमी के भीतर की
चिरन्तन वृत्ति का प्रकाश भी है।
हे नगरी, महज कुछ-एक बार तुम्हारे भीतर आना
यह एहसास देता है कि जैसे तीनों-लोक में
नहीं कोई भी तुम्हारे जैसा,
चिरन्तन वृत्ति का प्रकाश भी है।
हे नगरी, महज कुछ-एक बार तुम्हारे भीतर आना
यह एहसास देता है कि जैसे तीनों-लोक में
नहीं कोई भी तुम्हारे जैसा,
तुम्हारा नशा, तुम्हारी देह, तुम्हारी बातें,
और तुम्हारा स्वाद है ऐसा।
२. दे सकता हूँ प्यार
दे सकता हूं प्यार, मगर
क्या ले पाओगे ?
२. दे सकता हूँ प्यार
दे सकता हूं प्यार, मगर
क्या ले पाओगे ?
जादुई तुम्हारी इन अंगुलियों से
झर जाते हैं हंसी, ज्योत्सना, स्मृतियां और दर्द सभी।
मेरी अपनी समझ है
कि चांदनी रातों में
नहीं उड़ा करते प्यारे कबूतर,
झर जाते हैं हंसी, ज्योत्सना, स्मृतियां और दर्द सभी।
मेरी अपनी समझ है
कि चांदनी रातों में
नहीं उड़ा करते प्यारे कबूतर,
फिर भी दे सकता हूं प्यार ।
शाश्वत, सहजतम है यह दान,
शाश्वत, सहजतम है यह दान,
कि अंकुर फूटें अपने उद्गम से निर्बाध,
और पिसते अंधेरों मे ज़र्द हुए बग़ैर
पा जाएं अपनी हरियाली ।
इस सहजता के बावज़ूद
बड़े दर्द के साथ रखता हूं
अपनी ही मौत की नींव,
पा जाएं अपनी हरियाली ।
इस सहजता के बावज़ूद
बड़े दर्द के साथ रखता हूं
अपनी ही मौत की नींव,
कि प्यार न कर बैठूं किसी को ।
संभाल नहीं पाओगे प्यार, कबूतरों,
संभाल नहीं पाओगे प्यार, कबूतरों,
उड़ जाओगे, पेड़ की अधिकतम ऊंचाई से
गिर कर भी आघात नहीं पाओगे,
गिर कर भी आघात नहीं पाओगे,
प्राचीन चित्रों की चिरस्थायी हंसी के साथ
चले जाओगे, जख्मी, दर्द में डूबा, स्तब्ध छोड़ जाओगे मुझे।
३. जादुई फूल
जादुई फूल, वह मेरा आविष्कृत प्रेम,
चले जाओगे, जख्मी, दर्द में डूबा, स्तब्ध छोड़ जाओगे मुझे।
३. जादुई फूल
जादुई फूल, वह मेरा आविष्कृत प्रेम,
लेमनचूस की तरह, बहुत देर तक, निगले बिना
जिसका रसास्वादन
करता हुआ, तृप्त मैं, भूल जाता हूं
अपनी लम्बी प्यासों को ।
बहुत सोचता रहता हूं
असंख्य खरोंचें लिए अपनी आत्मा पर
टूट कर बिखरना, क्या होता है , जानता हूं
नीले आसमान सा हृदय किसे कहते हैं,
करता हुआ, तृप्त मैं, भूल जाता हूं
अपनी लम्बी प्यासों को ।
बहुत सोचता रहता हूं
असंख्य खरोंचें लिए अपनी आत्मा पर
टूट कर बिखरना, क्या होता है , जानता हूं
नीले आसमान सा हृदय किसे कहते हैं,
और यह कि, निर्विकार उस चिड़िया का नाम
क्या है, जानता हूं ।
एक पतंग अपने धवल पंख खोल
उड़ता है, एक जवान अपनी आत्मा पर
उसकी सांसों को महसूस करता है ।
बीमार-मन मुग्ध होकर देखता हूं
खिड़कियों पर टपकती है लार
आसमान से, हवाओं में घुलती हुई ।
मुग्ध मैं, उड़ती हुई तुम - लौट आओ,
क्या है, जानता हूं ।
एक पतंग अपने धवल पंख खोल
उड़ता है, एक जवान अपनी आत्मा पर
उसकी सांसों को महसूस करता है ।
बीमार-मन मुग्ध होकर देखता हूं
खिड़कियों पर टपकती है लार
आसमान से, हवाओं में घुलती हुई ।
मुग्ध मैं, उड़ती हुई तुम - लौट आओ,
लौट आओ, प्रिय, लौटो रथ की तरह,
जीत की तरह, चिरन्तन कविता-सी लौटो ।
गीत बनकर गूंजेंगे, प्रेम बनकर,
गीत बनकर गूंजेंगे, प्रेम बनकर,
पवित्र सुर की तरह फैल जायेंगे हम
धरती-आकाश तक ।
धरती-आकाश तक ।
४. जल जाने दो
तो फिर जल जाने दो जलस्तम्भ,
भग्न आहत हृदय ।
दूर हो सारी शांति, सारी तृप्ति,
विस्मृत हो सर्वस्व,
सिर्फ तुम्हारे दर्द से भरा रहे, हृदय ।
नौकाकार तुम्हारी आंखों में थी
एक गहरी पुकार समुद्र की,
थे बादल, छांव, हवा, तूफान और आसमान ।
कांटों की चुभन-सी स्मृतियों वाले
फूलों जैसी, बेइन्तहा तुम्हारी यादें ।
पहले मिलन में छिली त्वचा की
जलन सी गोपनीय, मधुर यह वेदना ।
तो फिर, यह भी हो,
कि जले जलस्तम्भ, भग्न आहत हृदय ।
५. बहुत दिन बीते
बहुत दिन बीते, कि जब से
छोड़ कर तुम जा चुकी हो,
लौट भी आओ दोबारा
तैरती बहती प्लवन-सी ।
जी रहा मैं इन दिनों
शुष्क शिरीष फल सा
सरस हरे पत्तों में छिपकर ।
नजर तुम आईं, कदाचित,
मानुषी बनकर, कभी जब
देखता मैं सामने दीवार पर
तुमको उभरते, विश्रृंखल
रेखाओं के बीच से ।
पोसे हुए कबूतरों की चाल की तरह,
उनकी उड़ान , और उनकी
गुटरगूं की तरह, तुम्हें भी
प्यार करता हूं,
और तुम चली जाती हो, फिर-फिर.. ।