आँधियाँ जिस तरह जानती हैं अरण्य को
तुमको उसी तरह जानता हूँ मैं,
तेज नदी की धारा को जिस तरह देखता है
आसमान का तारा
-वैसा ही मेरा देखना।
ठहरता नहीं हूँ मैं
मेरे लिए नहीं है आराम का कोई मतलब।
अपनी बेचैनी को मैं कैसे समझाऊँ!
बाती से खुलता है कहीं बिजली का अर्थ?
सागर का अर्थ दे पाता है सरोवर?
एक अर्थ होता है पालतू पशु की आँखों में
और ही एक अर्थ जंगली साँप के सीने में;
व्यर्थ है दोनों के बीच का मिलान
अपनी उद्दामता में ही मिलूँगा मैं;
छोड़ दो मुझे वश कर पाने का ख्याल;
सहज कर पाने का ख्याल।
कौन जानता है मेरा जानना ही हो शायद
सचमुच का जानना।
डोल न उठे जबतक आसमान का भी शायद
तबतक नहीं कोई अर्थ,
पृथ्वी को भी डोलकर होना होता है सत्य
तुम हो मेरा आसमान
-मेरे तेज बहाव में ही डोलती
तुम्हारी पहचान!
तुम ही मेरा अरण्य!
तुम ही मेरे झंझावातों का
ठौर और प्रतिबिम्ब।
कवि: प्रेमेन्द्र मित्र
मूल बांग्ला से हिंदी अनुवाद: नील कमल