Monday, December 12, 2011

इन्द्राणी हालदार तुम्हारी हँसी..








तेरह तो मैं गिन सकता हूँ
इनमें से आठ दस बहुत साफ़ साफ़
और कुछ आधे पौने लुके छिपे लेकिन
सब के सब तराशे हुए चमकदार सुन्दर
इन्द्राणी हालदार ये तुम्हारे दाँत हैं या कुछ और?

मैं जानना चाहता हूँ 
भला  कैसे कोई चेहरा इतना संजीदा रहता है?
जबकि दो कानों के बीच फैली हो दूधिया उजास
यह बात हमारी समझ में नहीं आती इन्द्राणी हालदार।

अलग है तुम्हारी हँसी
मोनालिसा और माधुरी दीक्षित से 
एक ने दबा रखी है हँसी न जाने किस डर से
दूसरी के चेहरे से फूटती है हँसी फुलझरी सी 
और एक तुम हो कि जैसे हँसी का अर्थशास्त्र 
क्या कोई अवसाद भूले से भी तुम्हें नहीं घेरता ?

मैं तो जब भी हँसता हूँ ठठा कर
तो बिगाड़ ही लेता हूँ अपना चेहरा 
आँखों की कोर पर उभर आती हैं झुर्रियाँ 
मेरे पिता भी तो ऐसे ही हँसते थे जब बहुत खुश होते
सच तो यह कि हमारी आँखें ही मुँद जाती हैं खुशी में
तुम्हारी जैसी नपी तुली हँसी कैसे हँसते हैं इन्द्राणी हालदार?
तुम्हें इस तरह हँसने के कितने पैसे मिलते हैं इन्द्राणी हालदार?

जिनके राजकुमार उनसे रूठ कर चले गए 
जिन्हें प्रेम में छल के अलावा हासिल न हो सका कुछ 
ऐसी राजकुमारियों को हँसी का पता चाहिए इन्द्राणी हालदार
उन्हें इन्तज़ार रहता है घोड़े पर सवार अपने उस राजकुमार का
उनके सपनों में सुनाई पड़ती हैं घोड़ों के हिनहिनाने की आवाज़ें
क्या दुख में भी तुम्हें कभी रुलाई नहीं आती है इन्द्राणी हालदार?

- नील कमल 

Friday, December 2, 2011

कवि शंख घोष की कविताएँ

कवि शंख घोष की कविताएँ
(मूल बांग्ला से अनुवाद - नील कमल)


१. यौवन


दिन और रात के बीच
परछाइयाँ चिड़ियों के उड़ान की
याद आती हैं यूँ भी
हमारी आखिरी मुलाकातें ।


२. तुम


उड़ता हूँ और भटकता हूँ
दिन भर पथ में ही सुलगता हूँ
पर अच्छा नहीं लगता है जब तक
लौट कर देख न लूँ कि तुम हो , तुम ।


३. अखबार


रोज सुबह के अखबार में
एक शब्द बर्बरता
अपने सनातन अभिधा का
नित नया विस्तार ढूँढता है ।


४. सपना


ओ पृथ्वी
अब भी क्यों नहीं टूटती है मेरी नींद


सपनों के भीतर ऊँचे पहाड़ों की तहों से
झरती हैं पंखुरियाँ


झरती हैं पंखुरियाँ पहाड़ों से
और इसी बीच जाग उठते हैं धान के खेत


जब लक्ष्मी घर आयेगी
घर आयेगी जब लक्ष्मी


वे आयेंगे अपनी बन्दूकें और
कृपाण लिए हाथों में , ओ पृथ्वी


अब भी क्यों नहीं टूटती है मेरी नींद ।


५. नीग्रो दोस्त के नाम एक ख़त


रिचर्ड रिचर्ड
रिचर्ड तुम्हारा नाम मेरे लफ़्ज़ों में है ।
कौन रिचर्ड ?
कोई नहीं ।
रिचर्ड मेरा लफ़्ज़ नहीं है ।


रिचर्ड रिचर्ड
रिचर्ड तुम्हारा नाम मेरे सपनों में है ।
कौन रिचर्ड ?
कोई नहीं ।
रिचर्ड मेरा सपना नहीं है ।


रिचर्ड रिचर्ड
रिचर्ड तुम्हारा नाम मेरे दुख में है ।
कौन रिचर्ड ?
कोई नहीं ।
रिचर्ड मेरा दुख नहीं है ।
 
 


 

Thursday, October 20, 2011

सचिन तेन्दुलकर, मदर टेरेसा, मोहनदास व अन्य

एक कविता लिखना चाहता हूँ ..



एक शब्द को स्टेडियम के बाहर
उछाल देना चाहता हूँ
पूरी ताक़त बटोर कर ,

 बिलकुल गोल और चमकदार
एक शब्द पर साध कर निगाह
प्रहार करना चाहता हूँ इस तरह
कि कोई चालाक आदमी उसे
बीच में लपक न सके


आज कविता में
सचिन तेन्दुलकर लिखना चाहता हूँ ।





एक शब्द को उठा कर
पार्क-स्ट्रीट , चौरंगी के फ़ुटपाथों से
"निर्मल हृदय" तक ले जाना चाहता हूँ ,

 पवित्र मन से सहलाते हुए
एक घायल अपाहिज शब्द को
साफ़ कर देना चाहता हूँ
उसकी देह से रिसती मवाद
और भिनभिनाती मक्खियाँ


आज कविता में
मदर टेरेसा लिखना चाहता हूँ ।




एक शब्द के साथ
हिंसक हुए बिना
परख लेना चाहता हूँ अपना सुलूक ,

 एक भाषा के एकान्त में
पूरी रात सोना चाहता हूँ
कुछ जवान गर्म शब्दों के साथ
दोहराना चाहता हूँ "सत्य" के साथ मेरे "प्रयोग"

 आज कविता में
मोहनदास कर्मचन्द लिखना चाहता हूँ ।


और भी बहुत-बहुत सी बातें
चाहता हूँ कविता में करना , एक नहीं
दो नहीं
तीन नहीं
चारों पुरुषार्थ चाहता हूँ
सम्भव देखना - शब्दों में , कविता में । 

Saturday, October 1, 2011

मैं एक कवि को जानता था




मैं एक कवि को जानता था । कोलकाता के कॉलेज स्ट्रीट इलाके में स्थित पातीराम-बुकस्टॉल पर बांग्ला की लघु पत्रिकाएँ देख रहा था । "कविता कविता" नाम की एक पत्रिका ने सहज ही अपनी ओर ध्यान खींच लिया । सम्पादक का नाम लिखा था कार्तिक देवनाथ । पत्रिका के उपलब्ध दो अंक ले कर घर आ गया । भीतर बहुत सी अच्छी कविताओं के बीच कार्तिक देवनाथ की कुछ कविताओं ने बहुत प्रभावित किया । सम्पादकीय पते पर पत्र लिखा - बांग्ला में । मेरे आश्चर्य का ठिकाना न रहा जब स्वयं कवि कार्तिक देवनाथ एक दिन हमारे घर आ पहुँचे । दोपहर का वक्त था । बातचीत के बाद जब चलने को हुए तो कर्तिक बाबू ने मुझे भी साथ चलने को कहा । लखनवी अन्दाज में अब मैं कवि के साथ उनके घर तक गया । बाँसद्रोणी में उनका एक कच्चा घर था । पानी बिजली कुछ भी नहीं । कार्तिक यहाँ अपनी कविताएँ रचते थे । उनकी पत्नी दीपा और स्वयं कार्तिक किसी मामूली से कारखाने में काम करते थे जहाँ बैग वगैरह बनते थे । कमाई बहुत थोड़ी लेकिन उसी से यह "कविता कविता" पत्रिका निकालते थे । कहते थे यही मेरी सन्तान है । फ़िर तो गाहे बगाहे मिलना हो जाता था । कवि देवाशीष साहा तथा कवि-कथाकार दीपंकर राय से भी परिचय हुआ । लम्बे व्यवधान के बीच कभी कभी इनसे मिलना हो ही जाता था । कार्तिक देवनाथ की कुछ कविताऒं का अनुवाद मैंने प्रगतिशील वसुधा के बांग्ला साहित्य पर केन्द्रित अंक के लिए अरविन्द चतुर्वेद को दिया । इस बीच वह प्रतीक्षित अंक नही आ पाया और अतिथि सम्पादक बदलते रहे । लम्बी प्रतीक्षा के बाद भोपाल से प्रकाशित दिग्दर्शक पत्रिका में कार्तिक देवनाथ की पाँच कविताओं का हिन्दी अनुवाद प्रकाशित हुआ । हिन्दी में पहली बार इस कवि को प्रकाशित होता देख मुझे भी सन्तोष का अनुभव हुआ । इस बीच नदियों में बहुत पानी बह चुका था । मैंने दीपंकर राय को फ़ोन लगाया यह बताने के लिए कि कार्तिक बाबू की कविताएँ हिन्दी में छप गई हैं । लेकिन तभी यह दुखद संवाद मिला कि कार्तिक अब इस जगत में नहीं रहे । यहाँ कार्तिक देवनाथ की एक कविता हिन्दी के पाठकों के लिए -
किरासिन वाली ढिबरी

किरासिन वाली
ढिबरी के कानों में कहीं
मैंने ज्यादातर कविताएँ

गहरी रात तक जागे रहते हैं
टिमटिमाते शब्द

पलकों की मीठी छुअन से
पिरोता शब्दों की लड़ियाँ
मुग्ध होता हूँ

कविता सुनते सुनते सो जाने पर
एक ऐसा वक्त भी आता है
जब नहीं होता घर में कोई भी आसरा
न कोई जतन कि उसे जगाऊँ

निर्जन अंधकार, हाथों से
छीन ले जाता है नींदें और
पढ़ता रहता है एक एक पंक्ति

एक पूरी कविता का वाद्य जब जा चुका होता है
भोर की रोशनी में सुनता हूँ कविता का पाठ

सूरज से
करता हूँ सवाल
अब तक जितनी
पृथ्वियों का प्रसव किया तुमने
मेरी यह किरासिन वाली ढिबरी
उन सबको रास्ता दिखा सकती है ।

 
 
 
  

Thursday, September 15, 2011

ऊँचे दाँतों वाली लड़की / नील कमल






ऊँचे दाँतों वाली लड़की की नींद में
आता है नीली कमीज़ वाला एक लड़का
और ऊँचे दाँतों वाली लड़की
पंखुरी बन जाती है
महकती है, जंगली फूल की तरह


इस तरह नींद में
नीली कमीज़ का एक रिश्ता
बनता है ऊँचे दाँतों से
वह पाती है
कि उसके सबसे गर्म रिश्ते का
रंग नीला है


वह लड़की आसमान से करती है अनुरोध
कि दुनिया की हर नीली चीज़ को
वह अपने दाँतों में दबा सकती है ।

Saturday, August 27, 2011

कवि सुकान्त की कविताएँ

महज बीस साल की छोटी उम्र जीने वाले कवि सुकान्त भट्टाचार्या की कविताएँ उनके किसी भी समकालीन कवि की कविताओं पर इक्कीस ही ठहरती हैं । गहन वैचारिक समझ और मनुष्य के दुख दर्द की निष्कपट छवियों के लिए ये कविताएँ मील का पत्थर साबित होती हैं ।

कवि सुकान्त की कविताएँ
(मूल बांग्ला से अनुवाद : नील कमल)






१. सीढ़ियाँ

हम सीढ़ियाँ हैं
रोज हमें रौंदते हुए
तुम चढ़ते हो ऊँचाइयों की ओर
और पलट कर देखते भी नहीं पीछे
हमारी रोज-रोज लहूलुहान होती छातियाँ
बिछी हुई तुम्हारे पैरों के नीचे ।

पता है तुमको भी
तभी तो कालीनों में छुपा कर
रखना चाहते हो हमारे सीनों के जख्म
पर्दा डालना चाहते हो अपने जुल्मों के निशान पर
और पहुँचने नहीं देना चाहते हो दुनिया के कानों तक
अपने गर्वीले पैरों की जुल्म ढाती आहटों को ।

लेकिन हम जानते हैं
इस दुनिया से हमेशा के लिए छुपा नहीं रहेगा
हमारी देह पर तुम्हारे पैरों का आघात ।

बादशाह हुमायूँ की तरह
एक दिन फ़िसलेंगे तुम्हारे भी पैर ।

२. पारपत्र

भूमिष्ठ हुआ जो शिशु आज रात
उसी के मुँह से मिली है खबर
कि पास उसके एक पारपत्र
जिसके साथ खड़ा वह विश्व के द्वार
भर कर एक ज़ोर की चीख
उसने जताया है अपना हक़ जनमते ही ।

नन्हा , निस्सहाय वह
फ़िर भी मुट्ठियाँ भिंची हुई
लहराती फ़हराती
न जाने किस अबूझ अंगीकार में ।
अबूझ उसकी भाषा सबके लिए
कोई हँसता कोई देता मीठी झिड़की ।

मैंने समझी उसकी भाषा मन ही मन में
पाई चिट्ठी नई आने वाले युग की
मैंने पढ़ा वह पहचान पत्र
भूमिष्ठ शिशु की धुँधली, कुहासे से भरी
आँखों में ।

आया है नवीन शिशु
छोड़ देनी होगी जगह उसके लिए
चले जाना होगा हमें व्यर्थ ही
जीर्ण धरा पर मृत ध्वंशस्तूप की ओट ।

जाऊँगा , लेकिन जब तक है जान
हटाऊँगा धरती के सब जंजाल
दुनिया को इस शिशु के रहने लायक
बना जाऊँगा
नवजातक के प्रति यह मेरा दृढ़ अंगीकार ।

और अन्त में निबटा कर सारे काम
अपने लहू से नवीन शिशु को दूँगा आशीर्वाद
हो जाऊँगा इतिहास उसके बाद ।

३. दियासलाई की तीली

मैं दियासलाई की एक छोटी तीली
अति नगण्य , सबकी नजर से ओझल
फ़िर भी बारूद कसमसाता है मुँह के भीतर
सीने में जल उठने को बचैन एक साँस ,

मैं दियासलाई की एक छोटी तीली ।

कैसी उथल-पुथल मच गई उस दिन
जब घर के एक कोने में जल उठी आग
बस इसलिए कि नाफ़रमानी के साथ
बिन बुझाए फ़ेंक दिया था मुझे
कितने घर जला कर किए खाक
कितने प्रासाद धूल में मिला दिए
मैंने अकेले ही - मैं दियासलाई की एक छोटी तीली ।

कितने शहर कितनी रियासतें
कर सकता हूँ मैं सुपुर्दे खाक
क्या अब भी करोगे नाफ़रमानी
क्या तुम भूल गए उस दिन की बात
जब जल उठे थे हम एक साथ एक बक्से में
और चकित तुम - हमने सुनी उस दिन
तुम्हारे विवर्ण मुख से एक आर्त्तनाद ।

हमारी बेइन्तहा ताकत का एहसास
बार-बार करने के बावजूद
तुम समझते क्यों नहीं
कि हम कैद नहीं रहेंगे तुम्हारी जेबों में
हम निकल पड़ेंगे , हम फ़ैल जाएंगे
शहरों कस्बों गाँवों - दिशाओं से दिशाओं तक ।

हम बार-बार जले नितान्त उपेक्षित
जैसा कि जानते ही हो तुम
तुम्हें बस यही नहीं मालूम
कि कब जल उठेंगे हम
आखिरी बार के लिए ।

४. अठारह की उम्र

कितनी दुस्सह यह अठारह की उम्र
कि सिर उठाने के खतरे मोल लेती है

बड़े बड़े दुस्साहसी सिर उठाते हैं
अठारह की उम्र में हमेशा ।

अठारह की उम्र को नहीं कोई भय
यह ठोकर से तोड़ती है पथ की बाधाएँ
इस उम्र में झुकता नहीं कोई मस्तक
अठारह की यह उम्र नहीं जानती है रोना ।

इस उम्र को पता है रक्त दान का पुण्य
यह वाष्प की गति चलने की उम्र है
जीवन देने और लेने की उम्र है यह
इस उम्र में खाली नहीं रहती है झोली
इसी उम्र में सौंपते हैं हम अपनी आत्माएँ
शपथ के शोर में ।

बड़ी खतरनाक है अठारह की उम्र
कि तरो ताजा जिन्दगियों में
उतरती है असहनीय पीड़ा
और इसी उम्र में एक जीवन
पाता है अपनी तेज धार
कानों में आती हैं मन्त्रणाएँ ।

अदम्य है अठारह की उम्र
तूफ़ानों में भटकने की उम्र है यह
मुसीबतों से लड़ते-जूझते  
लहू लुहान होते हैं हम इसी उम्र में ।

अठारह की उम्र में आघात सहते हैं हम
लगातार बिना थके हुए
लाखों लम्बी-लम्बी साँसों में
दर्द से काँपता है थर-थर अठारहवाँ साल ।

फ़िर भी सुनता हूँ जय-जयकार अठारहवें साल की
यही उम्र बची रहती है आपदाओं और आँधियों में
खतरों के आगे बढ़ती है यह उम्र
कुछ नया-नया सा होता है
अठारह की उम्र में ।

डरपोक और पौरुष हीन नहीं है
अठारह की उम्र
यह नहीं जानती रुकना बीच राह में
नहीं कोई भी संशय इस उम्र में ,

अठारह की उम्र मिले इस देश को ।

५. हे महाजीवन

हे महाजीवन , और यह कविता नहीं
अब कठिन कठोर गद्य ले आओ
पद लालित्य झंकार मिट जाए
गद्य के गुरु हथौड़े की चोट से
नहीं चाहिए अब कविता की स्निग्धता
कविता मैं आज तुम्हें देता हूँ छुट्टी
गद्यमय है पृथ्वी भूख के राज में
पूनम का चाँद आज झुलसी एक रोटी ।

Thursday, July 21, 2011

शेरपा-5 / नील कमल





शेरपा-5 / नील कमल
पहाड़ की उम्र से भी बड़ा
है शेरपा का दुख
बादलों की उम्र से भी छोटी
उसकी ख़ुशियाँ,शेरपा के बारे में
सोचते हुए मैं अपनी पीठ पर
महसूस कर सकता हूँ
पृथ्वी का वजन और
अपने चेहरे पर गहराती
सर्पिल रेखाएँ
एक दुखती रीढ़ पर फेरते हुए
हाथ, मैं सोचता हूँ, आख़िर
कितनी चोट पड़ने पर
लोहे में आती है धार,कितने बसंत देखने के बाद
घर से भागती है लड़की,और यह कि उम्र के किस
पड़ाव पर विरोध में हाथ उठाना
सीखता है बच्चा,छन्दहीन इस कविता समय में
दिन की शुरूआत
करता है शेरपा
सुबह की उतरी ताड़ी और
बासी मोमो के साथ
और दिन ढले
कुछ मोगरे के फूलों के साथ
लौटना चाहता है घर
सर्दी, गर्मी, बरसात, हर मौसम में
सैलानियों के इन्तज़ार में
खड़ा रहता है
किसी घुमावदार मोड़ पर
हर नये वज़न के साथ
कस लेता है कमर
पृथ्वी के गुरूत्वाकर्षण को
देता हुआ चुनौती
सही-सलामत ले जाता है
सैलानी को
उसके होटल वाले कमरे तक
जहाँ से पहाड़ दिखता है
खिड़की से बराबर
मैं नहीं गिन पाता
उसके चोट के निशान,मैं नहीं गिन पाता
उसके बीते हुए बसंत,मेरे लिए शेरपा की उम्र
सबसे बड़ा सवाल है ( कविता संग्रह "हाथ सुंदर लगते हैं" से)

Sunday, July 10, 2011

शोक में डूबे हुए हैं खुशी के सातों रंग

शोक में डूबे हुए हैं खुशी के सातों रंग
(मक़बूल फ़िदा हुसैन के लिए एक कविता)



कैसे हो मक़बूल फ़िदा हुसैन
कहां हो - जन्नत या दोजख
क्या नसीब हुआ तुम्हें
इस जहान से कूच करने के बाद
जहां भी तुम हो
वहां रंग तो होंगे आस-पास
लाल-हरे-पीले- जिनमें डुबो कर अपनी
टहनी-जितनी लम्बी तूलिका
तुमने बना डाला है यह कैसा
हंसता हुआ इन्द्रधनुष
बिलकुल माधुरी दीक्षित की
हंसी-जैसा उन्मुक्त
पश्चिम के आकाश में
जिससे घोड़ों के हिनहिनाने की
आवाज़ें आया करती हैं
पूरब तक
कैसे हो मक़बूल फ़िदा हुसैन
कहां हो इस वक़्त
क्या तुम्हारी स्मृतियों में
आज भी बजते हैं राग
किसी श्वेत-पद्मासना की वीणा से
कौन सा वसन धारण करते हो
तुम आजकल
क्या जूते भी पहनने लगे हो वहां
बालों में लगाने लगे हो खिजाब
यह कैसा करिश्मा है मक़बूल फ़िदा हुसैन
कि तुम्हारे बाद गजगामिनी स्त्रियां
रहने लगी हैं उदास सात समन्दर
पार तक और
किष्किन्धा पहाड़ के तमाम वानर
शर्मिन्दा हैं अपनी नंगई पर
यह जान कर हैरानी तो होगी
तुम्हें मक़बूल फ़िदा हुसैन
कि कलकत्ता के बालीगंज सर्कुलर रोड वाले
आज़ाद हिन्द ढाबा की दीवार पर
शोक में डूबे हुए हैं खुशी के सातों रंग
कि यह बेवफ़ा शहर
नंगे पैर डोलने वाले
अपने जिद्दी आशिक़ को
सिर्फ़ इसलिए रखना चाहता है यादों में
कि उसे पसन्द थे मटन-टिक्का पराठे
और स्पेशल चाय
रंगों को रहने दो उदास मक़बूल फ़िदा हुसैन
कपड़े उतार कर लेटी है धरती तो उसे
लेटने दो अभी कुछ दिन और
उसे रंगों से खाली रहने दो
खाली रहने दो आज़ाद हिन्द ढाबा का
उदास टेबल कुछ दिन और
अभी उठने दो विरहिणी की देह से
भाप की तरह उठती पुकार
लेकिन रंगों से जब भी खाली होने लगें
आंखों में टिमटिमाते सपने इस धरती पर
तो फ़िर मक़बूल फ़िदा, आ जाना नंगे पांव दौड़ कर
आसमान में डुबो कर टहनी-जितनी लम्बी कूची
दम तोड़ते सपनों को रंगत बख्शना, हुसैन ।

Wednesday, June 8, 2011

इतना भी न हुआ..




इतना भी न हुआ.. (एक कविता श्रृंखला)


. जीने की तरह जीना,
मरने की तरह मरना
इतना भी न हुआ
कि बोलूं तो सुना जाऊं दूर तक
चलूं तो पथ में न आएं बाधाएं
गाऊं अपनी पसन्द के गीत कभी भी
बनाऊं कहीं भी सपनों का नीड़
इतना भी न हुआ.. न हुआ इतना भी
कि विश्वास के बदले पाऊं विश्वास
श्रम के बदले रोटी-पानी ।


.गहराती रात जैसी नींद से निकल
पलकों की पीठ पर
सपनों की गठरी लिए
चल पड़ूं उछलता-कूदता
न हुआ इतना भी, इतना भी न हुआ
बांझ कोख सी उदासी में
डूबी है दुनिया
जिसकी बेहतरी की उम्मीद में
जागती आंखें झुकी रहती हैं
क्षमा-प्रार्थना की मुद्रा में इन दिनों
होठों से धीमे- धीमे
निकलता है स्वर,
क्षमा ! क्षमा ! बस क्षमा !! कहते हैं हम एक-दूसरे से ।


.क्षमा हे पितरों
तार नहीं सके हम तुम्हें
मुक्त न कर सके तुमको
आवागमन के दुश्चक्र से
कुन्द पड़ चुके हमारे इरादे
कौंधते और बुझते रहे अंधेरों में
हमारी स्मृतियों की गंगा में
आज भी तैरते हैं शव तुम्हारे
जिन्हें खींच कर तट पर लाएं
यह साहस हम जुटा ही नहीं पाए ।
क्षमा हे पृथ्वी
जल पावक गगन समीर
तुम्हारी विस्फोटक रोशनी में
चमक न सके हम कुन्दन बन
कात न सके चदरिया झीनी,
मिठास बिना ही ज़िन्दगी जीनी
नागवार हमें भी गुजरती थी  


.क्या करें, कि एक शीर्षक-हीन कविता थे हम
पढ़े जा सकते थे बिना ओर-छोर
कहीं से भी, बीच में छोड़े जा सकते थे हम,
 ज़िल्दों में बन्द, कुछ शब्द, हमें पता नहीं था
आलोचकों की भूमिका के बारे में
जैसे पता नहीं था पितरों को
मुक्ति का खुफ़िया रास्ता ।
एक शब्द चमक सकता था
अंधेरे में जुगनू बन
एक शब्द कहीं धमाके के साथ
फट सकता था
सोई चेतना के ऊसर में
एक शब्द को लोहे में
बदल सकते थे हम
धारदार बना सकते थे उसे
हमसे नहीं हुआ इतना भी, इतना भी न हुआ


.क्षमा ! हे शब्द-ब्रह्म, क्षमा !!
बहुत पीछे छूट चुका बचपन
ठिठका खड़ा है
अन्धे कुंए की ओट पर
विस्फ़ारित मुंह उस कुंए के
एक अधर पर धरे पांव
अड़ा है, कहां है सुरसा मुंह कुंए का
दूसरा अधर
शून्य में उठा दूसरा पांव
आकाश में लटका पड़ा है ।
समय की तेज रफ़्तार सड़क पर
कई प्रकाश वर्ष पीछे
ठिठका खड़ा बचपन
भींगता है अदद एक
बरसाती घोंघे के बिना
गल जाती हैं किताबें
स्कूल जाने के रास्ते में
खेत की डांड़ पर
भींग जाता है किताबों का बेठन,
 किताबों से प्रिय थे जिसे
इमली बेर आम चिलबिल
और रेडियो पर बजता विविध-भारती
उस बचपन से क्षमा,
कि हम अपराधी उस बचपन के
कुंए की तरह खड़े रहे हम
उसके रास्ते में
बिछ सकें नर्म घास की तरह
उभर सकें पांवों तले
ज़मीन की तरह
न हुआ इतना भी, इतना भी न हुआ..
 
 
 
 
 

Friday, April 22, 2011

पेड़ पर आधा अमरूद






एक सुन्दर कविता की तरह
वह लटका है
पेड़ की कमसिन शाख पर

आते-जाते रहते हैं
फलों के आलोचक
कभी सुग्गे की तरह
तो कभी गौरैया की तरह

मुझे इतना पता है
कि परिन्दे जब आते हैं
पेड़ों पर, अपनी नुकीली ठोर से
कुरेदते हैं जब किसी
मीठे फल की पीठ,
 तो उनके इस सुलूक में
उनके विवेक की भूमिका
उतनी नहीं होती
जितनी कि उनकी भूख की
हो सकती है

और, इतना तो आप भी
देख ही रहे होंगे
कि पेड़ पर कुछ अमरूद हैं
आधे खाए-जा-चुके

यह पूस का महीना है
एक फलते-फूलते मौसम में
यह कविता के अमरूद होने का समय है

Thursday, March 31, 2011

एक दिन आऊंगा




 एक दिन आऊंगा

खटखटाऊंगा तुम्हारा दरवाज़ा
मुझसे पीछा छुड़ाने की कोशिश में
तुम पूछोगे मेरे आने का मकसद
विरक्ति में डूबी आंखों से ।


उस दिन धीरे से चुपचाप
थमा जाऊंगा तुम्हें
जो कुछ भी होगा
मेरी झोली में ।


वह अगरबत्ती का एक
पैकेट भी हो सकता है
या फिर आधी-जली
मोमबत्ती का टुकड़ा, कोई मुरझाया सा फूल
या पुरानी ज़िल्द वाली
कोई किताब ।


कुछ नहीं पूछोगे तुम मुझसे
अगरबत्ती के बारे में, कि वह
जलेगी तो कमरों में कितनी
देर तक रहेगी सन्दल की ख़ुशबू
या कितनी दूर तलक जाएगी
मोगरे की गन्ध ।


मुझे यह भी बताने की
जरूरत नहीं होगी बाकी
कि मोमबत्ती के भीतर की
सुतली के जलने के दरम्यान
कितनी मोम पिघल कर
फैल गई है हमारे एकान्त में
या फिर कालिख की तरह
जम गई है हमारी सांसों में ।


और ताज्जुब तो यह कि
तुम जानना भी नहीं चाहोगे
कैसे मुरझा जाते हैं फूल दबे-दबे
किताबों के भीतर, और फैल जाता है
एक हाहाकार शब्दार्थों के बाहर की दुनिया में ।


उस दिन, न तो पूछ ही सकोगे तुम
न ही बता सकूंगा मैं
एक किताब की ज़िल्द के
पुराने होते जाने की इतिकथा, उस दिन, अभिव्यक्ति पाए बिना ही उठेंगी
कुछ कविताएं , भाप बन कर , पुरानी ज़िल्द वाली किताब से
और फुसफुसाती हुई कानों में
बताएंगी मेरे आने का मकसद ।


मुझसे पीछा छुड़ाना
नहीं होगा इतना आसान
कि मेरे पास होंगी कुछ
मामूली चीजें, मसलन एक अगरबत्ती का पैकेट
एक आधी-जली हुई मोमबत्ती
एक मुरझाया-सा फूल , या
पुरानी ज़िल्द वाली एक किताब ।


चुपचाप थाम लोगे तुम कोई एक
मामूली सी चीज मेरे हाथों से
और मैं लौटूंगा अपनी झोली में
सहेज कर कोई बहुत पुराना ख़त
जिसे तुमने संभालकर रखा होगा
मेरे लिये स्मृतियों के सन्दूक में ।


उस दिन, आंखों में झिलमिलाते
तरल सन्धिपत्रों पर होंगे हमारे
अमिट हस्ताक्षर ।


कैसा यह देना-लेना साथी, कैसा नक़द - उधार
कैसा अद्भुत यह जीवन व्यापार ।

Monday, February 21, 2011

बांग्ला-कवि विनय मजुमदार


बांग्ला के विलक्षण कवि विनय मजुमदार के यहां प्रेम कोई आध्यात्मिक वस्तु भले ही न हो किन्तु वह पवित्र अवश्य है- प्रकृति की तरह, फूलों,झरनों,पहाड़ों और नदियों की तरह। यह अस्थि-मज्जा से युक्त, रक्त-मांस से भरपूर स्पन्दित प्रेम है। कवि की ही तरह उसकी काव्य-भाषा भी विलक्षण है। प्रस्तुत है कवि की कुछ कविताओं के हिन्दी अनुवाद, जो उनकी प्रतिनिधि कविताओं के संकलन से चयनित हैं:
 (मूल बांग्ला से सभी अनुवाद- नील कमल)




 

१.अकाल्पनिक 
 
तुम्हारे भीतर आऊंगा, हे नगरी,
कभी-कभी चुपचाप
बसन्त में कभी, कभी बरसात में
जब दबे हुए ईर्श्या-द्वेष
पराजित होंगे इस क़लम के आगे
तब, जैसा कि तुमने चाहा था,
एक सोने का हार भी लाऊंगा उपहार।
तुम्हारा सर्वांग ज्यों इश्तहार
यौवन के बाज़ार का, फिर भी तुम्हारे पास आकर
महसूस होता है, जैसे तुम्हारी अपनी
एक तहज़ीब है, सिर्फ़ तुम्हारी,
और जो आदमी के भीतर की
चिरन्तन वृत्ति का प्रकाश भी है।
हे नगरी, महज कुछ-एक बार तुम्हारे भीतर आना
यह एहसास देता है कि जैसे तीनों-लोक में
नहीं कोई भी तुम्हारे जैसा,
 तुम्हारा नशा, तुम्हारी देह, तुम्हारी बातें,
 और तुम्हारा स्वाद है ऐसा।   
 

२. दे सकता  हूँ  प्यार 

 दे सकता हूं प्यार, मगर
क्या ले पाओगे ?
जादुई तुम्हारी इन अंगुलियों से
झर जाते हैं हंसी, ज्योत्सना, स्मृतियां और दर्द सभी।
मेरी अपनी समझ है
कि चांदनी रातों में
नहीं उड़ा करते प्यारे कबूतर,
 फिर भी दे सकता हूं प्यार ।
शाश्वत, सहजतम है यह दान,
 कि अंकुर फूटें अपने उद्गम से निर्बाध,
और पिसते अंधेरों मे ज़र्द हुए बग़ैर
पा जाएं अपनी हरियाली ।
इस सहजता के बावज़ूद
बड़े दर्द के साथ रखता हूं
अपनी ही मौत की नींव,
कि प्यार न कर बैठूं किसी को ।
संभाल नहीं पाओगे प्यार, कबूतरों,
उड़ जाओगे, पेड़ की अधिकतम ऊंचाई से
गिर कर भी आघात नहीं पाओगे,
 प्राचीन चित्रों की चिरस्थायी हंसी के साथ
चले जाओगे, जख्मी, दर्द में डूबा, स्तब्ध छोड़ जाओगे मुझे।   


 ३. जादुई  फूल 

 जादुई फूल, वह मेरा आविष्कृत प्रेम,
लेमनचूस की तरह, बहुत देर तक, निगले बिना
जिसका रसास्वादन
करता हुआ, तृप्त मैं, भूल जाता हूं
अपनी लम्बी प्यासों को ।
बहुत सोचता रहता हूं
असंख्य खरोंचें लिए अपनी आत्मा पर
टूट कर बिखरना, क्या होता है , जानता हूं
नीले आसमान सा हृदय किसे कहते हैं,
और यह कि, निर्विकार उस चिड़िया का नाम
क्या है, जानता हूं ।
एक पतंग अपने धवल पंख खोल
उड़ता है, एक जवान अपनी आत्मा पर
उसकी सांसों को महसूस करता है ।
बीमार-मन मुग्ध होकर देखता हूं
खिड़कियों पर टपकती है लार
आसमान से, हवाओं में घुलती हुई ।
मुग्ध मैं, उड़ती हुई तुम - लौट आओ,
लौट आओ, प्रिय, लौटो रथ की तरह,
जीत की तरह, चिरन्तन कविता-सी लौटो ।
गीत बनकर गूंजेंगे, प्रेम बनकर,
पवित्र सुर की तरह फैल जायेंगे हम
धरती-आकाश तक ।

 ४. जल  जाने  दो


 तो फिर जल जाने दो जलस्तम्भ,
भग्न आहत हृदय ।
दूर हो सारी शांति, सारी तृप्ति,
विस्मृत हो सर्वस्व,
सिर्फ तुम्हारे दर्द से भरा रहे, हृदय ।
नौकाकार तुम्हारी आंखों में थी
एक गहरी पुकार समुद्र की,
थे बादल, छांव, हवा, तूफान और आसमान ।
कांटों की चुभन-सी स्मृतियों वाले
फूलों जैसी, बेइन्तहा तुम्हारी यादें ।
पहले मिलन में छिली त्वचा की
जलन सी गोपनीय, मधुर यह वेदना ।
तो फिर, यह भी हो,
 कि जले जलस्तम्भ, भग्न आहत हृदय ।


 ५. बहुत  दिन बीते 
 

बहुत दिन बीते, कि जब से
छोड़ कर तुम जा चुकी हो,
लौट भी आओ दोबारा
तैरती बहती प्लवन-सी ।
जी रहा मैं इन दिनों
शुष्क शिरीष फल सा
सरस हरे पत्तों में छिपकर ।
नजर तुम आईं, कदाचित,
मानुषी बनकर, कभी जब
देखता मैं सामने दीवार पर
तुमको उभरते, विश्रृंखल
रेखाओं के बीच से ।
पोसे हुए कबूतरों की चाल की तरह,
 उनकी उड़ान , और उनकी
गुटरगूं की तरह, तुम्हें भी
प्यार करता हूं,
और तुम चली जाती हो, फिर-फिर..