Saturday, November 10, 2012

दीपंकर राय की कविता -" दाखिल"

दीपंकर राय बांग्ला कविता में एक भिन्न भाव-बोध और भाषा-भंगिमा के कवि हैं । देश-भाग का दंश जीने वाली बांग्ला की कविता पीढ़ी में दीपंकर राय का नाम भी शुमार किया जाता है । वे बार-बार अपनी जड़ों की ओर लौटते हैं । हां , इसके लिए अब पासपोर्ट और वीसा की ज़रूरत पड़ती है । तत्कालीन पूर्वी बंगाल से विस्थापित होने की पीड़ा इस कवि के लेखन में बरबस झलकती है । यहां प्रस्तुत "दाखिल" शीर्षक कविता कवि के संकलन "मत्स्यकुमारीर जोछना" से है ।





दाखिल..


महसूस कर सकता हूं

कि दाखिल हो चुका हूं


ज़रा ज़रा सा दाखिल होते हुए

महसूस उसे भी तो होता होगा


चांद को भी महसूस होता है

दाखिल होते हुए , आसमान का बदलना

बादलों को भी महसूस होता है कि आसमान

वही नहीं रहा जो कि वह था

तट पर उतरते हुए , शायद वह

सोचता समझता है "इस नदी" के विषय में -


क्या पानी को भी होता है महसूस ?

ऐसा जीवन  पाकर भी क्यों वह

बोल नहीं पाता , "कैसा हूं" -


सवालों जवाबों के परे जहां

कुदरत महज हवा में

हवा ही जहां कुदरत मेरे लिए

एक जलती हुई सिगरेट ..

आंखों के इर्द गिर्द तांबई रंग पूछता है


क्यों नही जी लेता मैं ये पल खुशी के ।

(अनुवाद : नील कमल )

 

Thursday, August 16, 2012

कितना बड़ा है स्त्री की देह का भू-गोल


कितना बड़ा है
स्त्री की देह का भू-गोल
क्या इतनी बड़ी
है स्त्री की देह कि
जिसपर पैदल यात्रा शुरु करे
अलसुबह कोई पवित्र विचार
किसी एक छोर से तो पहुंच ही न पाए
उसके दूसरे छोर तक और शाम हो जाए


कितने पहाड़ हैं
इस भू-भाग पर
कितने पठार
कितनी नदियां
कितने रेगिस्तान


कितनी बारिश होती है यहां
कितने फूल खिलते हैं इस इलाके में


क्या मापा गया
कभी किसी यंत्र से
तापमान इसका
आर्द्रता इसकी


कितनी ऋतुएं
कितनी वनस्पतियां
कितने पशु-पक्षी
पाए जाते हैं यहां


क्या देखा किसी ने
आपदाओं को टूटते
इसकी छाती पर
गिने गए क्या
किसी युग में
क्षत के निशान
इसकी देह पर


कवि-गण रहे रीझते
पृथ्वी के ऊंचाइयों वाले उभारों पर
गहराइयों में रहे तैरते डूबते
अलक्षित रहा कवि की आंख से
समतल इस भू-भाग का जहां
नदियां जुटाती रहीं मिट्टी युगों से चुपचाप
यह क्षेत्र किसी स्त्री की पीठ सा दिखता है


हे पुरातत्ववेत्ताओं !
क्या किसी खुदाई में मिले
आंसुओं के मोती फॉसिल बने हुए


हे वनस्पति-शस्त्रियों !
बताओ क्या किसी जंगल में मिला
कोई फूल कभी न मुरझाने वाला


हे काव्य-रसिकों !
बताओ क्या पढ़ी है कहीं
कविता कोई स्त्री के पेट पर


हे कविता के व्यापारियों !
बताओ लिखी क्यों नहीं गई कोई महान कविता
अब तक उसकी एड़ियों की फटी बिवाइयों पर
क्यों नहीं है कोई याद रखने लायक कविता
हमारी भाषा में उसकी हथेलियों पर उग आए
काले कठोर घट्ठों पर ।

Sunday, June 3, 2012

समकालीनता के बारे में..



कैसे हो कवि
कविता-फ़विता तो खैर
कर लेते हो ठीक ठाक



छप-छपा जाते हो इधर-उधर
अदीब कोई, गाहे बगाहे, लिख भी देता है
तुम्हारी तारीफ़ में , तो क्या इतने से
बचा रहेगा रसूख शाइरी का ?


कभी फ़ोन-फ़ान भी कर लिया करो अमुक सिंह को
तमुक त्रिपाठी से जारी रखो खतो-किताबत
फ़लाँ श्रीवास्तव के शहर भी चले जाया करो
कभी घूमते-घामते , ढेकाँ पाण्डेय जी का जन्म दिन
भी रखा करो याद , अदब के मुख्तलिफ़ रिसालों में
इन सबकी है बड़ी साख , सुनते हैं ।
 

कवि , बड़ी कायर किस्म की है
तुम्हारी सोच समकालीनता के बारे में
बहादुर तुम्हारे समकालीन कैसे खुजला रहे हैं
एक दूसरे की पीठ , देखो , सभ्यता की उस
दीवार के पीछे , बौने भी यहाँ छू लेते हैं आकाश
 

विकल्प दो ही हैं, कवि, दो ही नुस्खे होते हैं
मुश्किल हालात में  
सफ़ल होने के -


किसी की पीठ पर चढ़ कर
छूना होता है आकाश ,
या फ़िर , आत्मनिर्वासन में जीते हुए
होना होता है "उदै परकाश"

 

Saturday, February 4, 2012

ओ मेरी शापित कविताओं



बदचलन हो गये हैं शब्द
बदल दिये हैं सुलूक उन्होंने
कविता में


अब लिखता हूँ प्रेम तो
नहीं खिलता है कोई एक फूल
बस एक गागर रीती सी
डूबती जाती है
हृदय की गहराइयों से
डुब डुब डुबुक डुबुक
की आवाज़ें आती हैं


घृणा लिखते ही कागज पर
नहीं छिटकती हैं लुत्तियाँ
दुख लिखने पर नम नहीं होता
कठिन करेज कोई पहले जैसा


सियाही आँसुओं की हो या
रोशनाई हो लहू सी
इबारतें अब नहीं खिलती हैं
अँधेरे में जुगनुओं की तरह


इन शब्दों का क्या करूँ मैं
जो मेरे आस पास पसरे रहते हैं
सहवास के बाद की निर्लिप्तता में
निस्पन्द ठण्डे जिस्म हों जैसे


आखिर कब टूटेगा कविता का तिलिस्म
आखिर कब लिखी जायेगी वह कविता
जिसके शब्द बोलते होंगे
कि जैसे पान खाये होठों से
बोलती है सुर्ख़ी


ओ मेरी शापित कविताओं
तुम्हारी मुक्ति के लिये , लो
बुदबुदा रहा हूँ वह मन्त्र
जिसे अपने अन्तिम हथियार
की तरह बचा रखा था मैंने


तुम्हें ही वरण करने थे
मेरे कवच और कुण्डल
मुझे काम आना था इसी तरह
कुछ शब्दों को अर्थ सौंपते हुए !


(नील कमल)

अरूप घोष की पेंटिंग - गूगल के सौजन्य से

Saturday, January 28, 2012

‘किट्टू’ के लिए



सपनों की उम्र
लंबी हो गई
ज़िन्दगी छोटी होने का ग़म नहीं

सपनों का अंकुर फूटा है
रोशनी की फ़सल आँखों में
तैरने लगी है

इस रोशनी का नाम किट्टूहोना चाहिए ।



{"हाथ सुंदर लगते हैं" कविता संग्रह में संकलित , बेटे ऋत्विज (किट्टू) के लिए लिखी कविता}