कितना बड़ा है
स्त्री की देह का भू-गोल
क्या इतनी बड़ी
है स्त्री की देह कि
जिसपर पैदल यात्रा शुरु करे
अलसुबह कोई पवित्र विचार
किसी एक छोर से तो पहुंच ही न पाए
उसके दूसरे छोर तक और शाम हो जाए
कितने पहाड़ हैं
इस भू-भाग पर
कितने पठार
कितनी नदियां
कितने रेगिस्तान
कितनी बारिश होती है यहां
कितने फूल खिलते हैं इस इलाके में
क्या मापा गया
कभी किसी यंत्र से
तापमान इसका
आर्द्रता इसकी
कितनी ऋतुएं
कितनी वनस्पतियां
कितने पशु-पक्षी
पाए जाते हैं यहां
क्या देखा किसी ने
आपदाओं को टूटते
इसकी छाती पर
गिने गए क्या
किसी युग में
क्षत के निशान
इसकी देह पर
कवि-गण रहे रीझते
पृथ्वी के ऊंचाइयों वाले उभारों पर
गहराइयों में रहे तैरते डूबते
अलक्षित रहा कवि की आंख से
समतल इस भू-भाग का जहां
नदियां जुटाती रहीं मिट्टी युगों से चुपचाप
यह क्षेत्र किसी स्त्री की पीठ सा दिखता है
हे पुरातत्ववेत्ताओं !
आंसुओं के मोती फॉसिल बने हुए
हे वनस्पति-शस्त्रियों !
बताओ क्या किसी जंगल में मिला
कोई फूल कभी न मुरझाने वाला
हे काव्य-रसिकों !
बताओ क्या पढ़ी है कहीं
कविता कोई स्त्री के पेट पर
हे कविता के व्यापारियों !
बताओ लिखी क्यों नहीं गई कोई महान कविता
अब तक उसकी एड़ियों की फटी बिवाइयों पर
क्यों नहीं है कोई याद रखने लायक कविता
हमारी भाषा में उसकी हथेलियों पर उग आए
काले कठोर घट्ठों पर ।
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