Wednesday, January 13, 2021

उम्मीद न करें जनाब



इतना साधु कभी हो नहीं पाया
कि हत्यारे से कहूँ जाओ माफ़ किया

दुःख के पोखर में जिसने डुबोया
दुःख की नदी में डूबकर मरे यही चाहा

मुट्ठीभर फल खाने वालों के लिए
कोटि कोटि जन को कर्म की नसीहत करने वाले
धर्मग्रंथ को क्यों न फूँक कर ताप लूँ इसी जाड़े में

पिद्दी सी प्रजा हूँ तो क्या
जिस राजा ने नरक बनाया जीवन जन जन का
सरापता हूँ मर जाये जैसे ही करे अगला अन्याय

बेईमान न्यायाधीश लिखने को हो
जब कोई फैसला वंचित जन के हक़ के ख़िलाफ
कोढ़ फूटे उसकी अँगुलियों में और कलम छूट जाए

कवि से उम्मीद न करें जनाब
कि करेगा वह हुस्न और इश्क़ की बातें ऐसे वक़्त
तिलमिलाहट से न भर दे कागज पर छपी कविता
उसे कुत्ते की पूँछ में बाँध दीजिए ।

- नील कमल 

Saturday, January 2, 2021

अवनी क्या घर पर हो - शक्ति चट्टोपाध्याय



सोया पड़ा मुहल्ला सारा भींचके सब दरवाजे
खटखट करती रात सुनूँ मैं केवल साँकल बाजे
अवनी, क्या घर पर हो ?

बारिश का पानी गिरता है यहॉं बारहों मास
बादल फिरते जैसे कोई गाय विचरती जाय
द्वार छेंककर खड़ी
विमुख वह लंबी हरियल घास
अवनी, क्या घर पर हो ?

अर्धलीन गहरी पीड़ा में डूबा
जब सो जाता, रात बजाती साँकल
तब सहसा मैं सुन पाता
अवनी, क्या घर पर हो ?

मूल कविता : शक्ति चट्टोपाध्याय
बांग्ला से हिंदी भाषांतर : नील कमल 

Friday, January 1, 2021

अमलकांति - नीरेंद्रनाथ चक्रवर्ती



अमलकांति मेरा दोस्त
स्कूल में हम एकसाथ पढ़ते ।
रोज देर से क्लास में आता, जवाब कुछ बता नहीं पाता,
शब्दरूप पूछने पर अवाक यूँ खिड़की की तरफ देखता,
कि देखकर उसे हम सबको बड़ा कष्ट होता ।

हममें से कोई मास्टर बनना चाहता था, कोई डॉक्टर, कोई वकील ।
अमलकांति ऐसा कुछ भी नहीं चाहता था बनना।
वह धूप बनना चाहता था !
बारिश के बाद की उतरती शाम वाली शर्मीली धूप
जामुन और जामरुल की पत्तियों पर जो जरा सी मुस्कान की तरह खिली रहती है ।

हममें से कोई मास्टर बना, कोई डॉक्टर, कोई वकील ।
अमलकांति धूप न बन सका ।
वह अब अँधेरे एक छापाखाने में काम करता है ।
कभी कभी मुझसे मिलने आता है ; चाय पीता है,
इधर उधर की बातें करता है, फिर कहता है, अच्छा तो फिर चलता हूँ ।
मैं उसे दरवाजे तक छोड़ आता हूँ ।

हममें से जो इन दिनों करता है मास्टरी
वह अनायास ही डॉक्टर बन सकता था,
जो चाहता था डॉक्टर बनना, यदि वकील भी बनता
तो इसमें वैसा घाटा कुछ नहीं था ।

आखिर सबकी इच्छाएँ हुईं पूरी
एक अमलकांति को छोड़कर ।
अमलकांति धूप न बन सका ।
वही अमलकांति, धूप के बारे में सोचते सोचते,
सोचते सोचते,
जो एकदिन धूप बन जाना चाहता था । 

मूल कविता : नीरेंद्रनाथ चक्रवर्ती
बांग्ला से अनुवाद : नील कमल