Sunday, June 3, 2012

समकालीनता के बारे में..



कैसे हो कवि
कविता-फ़विता तो खैर
कर लेते हो ठीक ठाक



छप-छपा जाते हो इधर-उधर
अदीब कोई, गाहे बगाहे, लिख भी देता है
तुम्हारी तारीफ़ में , तो क्या इतने से
बचा रहेगा रसूख शाइरी का ?


कभी फ़ोन-फ़ान भी कर लिया करो अमुक सिंह को
तमुक त्रिपाठी से जारी रखो खतो-किताबत
फ़लाँ श्रीवास्तव के शहर भी चले जाया करो
कभी घूमते-घामते , ढेकाँ पाण्डेय जी का जन्म दिन
भी रखा करो याद , अदब के मुख्तलिफ़ रिसालों में
इन सबकी है बड़ी साख , सुनते हैं ।
 

कवि , बड़ी कायर किस्म की है
तुम्हारी सोच समकालीनता के बारे में
बहादुर तुम्हारे समकालीन कैसे खुजला रहे हैं
एक दूसरे की पीठ , देखो , सभ्यता की उस
दीवार के पीछे , बौने भी यहाँ छू लेते हैं आकाश
 

विकल्प दो ही हैं, कवि, दो ही नुस्खे होते हैं
मुश्किल हालात में  
सफ़ल होने के -


किसी की पीठ पर चढ़ कर
छूना होता है आकाश ,
या फ़िर , आत्मनिर्वासन में जीते हुए
होना होता है "उदै परकाश"

 

3 comments:

  1. वाह...
    बहुत बढ़िया...
    जाने कैसे आपकी ये रचना कवियों से अनदेखी रह गयी????

    सादर
    अनु

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  2. Pahle bhi kahin padha tha aur ye aisi kavita hai jise yaad karke kahin bhi kisi ko bhi sunaya ja sakta hai, bahut bareek

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