श्राद्धभोज के पश्चात
महापात्र लौट रहे थे इन्द्रप्रस्थ से
जयध्वनि गुंजाते, अपने सीने फुलाते
इन्द्रप्रस्थ में उन दिनों अमात्य का प्रताप था
राजा मर चुका था छोड़ कर अथाह सम्पत्ति
अंतिम इच्छा थी उसकी महापात्रों को बुलाया जाए
दया दाक्षिण्य में किसी प्रकार कार्पण्य न होने पाए
अमात्य था राजा का विश्वासपात्र, ऊपर से कवि था वह
श्राद्धभोज को इस प्रकार नाम दिया गया उत्सव का तब
कास के निविड़ वन खिल उठते जब धवल पुष्पों से
अमात्य का बुलावा आता महापात्रों को इन्द्रप्रस्थ से
विलासबहुल प्रासाद में प्रवास का दुर्दमनीय आमंत्रण
आमोद प्रमोद में काट कर उत्सव के दिन
लौट रहे होते प्रसन्नवदन मुदितमन महापात्र जब
राजधानी से कोसों दूर किसी वनप्रान्तर में कृषक
हताशा में तैयार कर रहे होते गले के लिये फन्दा
जवान लोग तब सड़कों पर खा रहे होते लाठियाँ
औरतें छुपने की जगह खोजतीं अँधेरी कोठरियों में
मध्याह्नभोज के बाद बीमार पड़ जाते अबोध शिशु
किन्तु महापात्रों को इन सबसे क्या
वे तो उत्सव के सजीले मंच से सुनाते सुंदर काव्य
और लौटकर अपने अपने गृहजनपद की सीमा में
छोड़ते हुए लम्बी डकार, कहते अमात्य की जय हो,
व्यवस्था यह चलती रहे, इसी में हम सबकी रज़ा है !
- नील कमल
वाह। यथार्थ का ऐसा मर्मग्राही काव्य!
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