Thursday, March 31, 2011

एक दिन आऊंगा




 एक दिन आऊंगा

खटखटाऊंगा तुम्हारा दरवाज़ा
मुझसे पीछा छुड़ाने की कोशिश में
तुम पूछोगे मेरे आने का मकसद
विरक्ति में डूबी आंखों से ।


उस दिन धीरे से चुपचाप
थमा जाऊंगा तुम्हें
जो कुछ भी होगा
मेरी झोली में ।


वह अगरबत्ती का एक
पैकेट भी हो सकता है
या फिर आधी-जली
मोमबत्ती का टुकड़ा, कोई मुरझाया सा फूल
या पुरानी ज़िल्द वाली
कोई किताब ।


कुछ नहीं पूछोगे तुम मुझसे
अगरबत्ती के बारे में, कि वह
जलेगी तो कमरों में कितनी
देर तक रहेगी सन्दल की ख़ुशबू
या कितनी दूर तलक जाएगी
मोगरे की गन्ध ।


मुझे यह भी बताने की
जरूरत नहीं होगी बाकी
कि मोमबत्ती के भीतर की
सुतली के जलने के दरम्यान
कितनी मोम पिघल कर
फैल गई है हमारे एकान्त में
या फिर कालिख की तरह
जम गई है हमारी सांसों में ।


और ताज्जुब तो यह कि
तुम जानना भी नहीं चाहोगे
कैसे मुरझा जाते हैं फूल दबे-दबे
किताबों के भीतर, और फैल जाता है
एक हाहाकार शब्दार्थों के बाहर की दुनिया में ।


उस दिन, न तो पूछ ही सकोगे तुम
न ही बता सकूंगा मैं
एक किताब की ज़िल्द के
पुराने होते जाने की इतिकथा, उस दिन, अभिव्यक्ति पाए बिना ही उठेंगी
कुछ कविताएं , भाप बन कर , पुरानी ज़िल्द वाली किताब से
और फुसफुसाती हुई कानों में
बताएंगी मेरे आने का मकसद ।


मुझसे पीछा छुड़ाना
नहीं होगा इतना आसान
कि मेरे पास होंगी कुछ
मामूली चीजें, मसलन एक अगरबत्ती का पैकेट
एक आधी-जली हुई मोमबत्ती
एक मुरझाया-सा फूल , या
पुरानी ज़िल्द वाली एक किताब ।


चुपचाप थाम लोगे तुम कोई एक
मामूली सी चीज मेरे हाथों से
और मैं लौटूंगा अपनी झोली में
सहेज कर कोई बहुत पुराना ख़त
जिसे तुमने संभालकर रखा होगा
मेरे लिये स्मृतियों के सन्दूक में ।


उस दिन, आंखों में झिलमिलाते
तरल सन्धिपत्रों पर होंगे हमारे
अमिट हस्ताक्षर ।


कैसा यह देना-लेना साथी, कैसा नक़द - उधार
कैसा अद्भुत यह जीवन व्यापार ।