Thursday, July 21, 2011

शेरपा-5 / नील कमल





शेरपा-5 / नील कमल
पहाड़ की उम्र से भी बड़ा
है शेरपा का दुख
बादलों की उम्र से भी छोटी
उसकी ख़ुशियाँ,शेरपा के बारे में
सोचते हुए मैं अपनी पीठ पर
महसूस कर सकता हूँ
पृथ्वी का वजन और
अपने चेहरे पर गहराती
सर्पिल रेखाएँ
एक दुखती रीढ़ पर फेरते हुए
हाथ, मैं सोचता हूँ, आख़िर
कितनी चोट पड़ने पर
लोहे में आती है धार,कितने बसंत देखने के बाद
घर से भागती है लड़की,और यह कि उम्र के किस
पड़ाव पर विरोध में हाथ उठाना
सीखता है बच्चा,छन्दहीन इस कविता समय में
दिन की शुरूआत
करता है शेरपा
सुबह की उतरी ताड़ी और
बासी मोमो के साथ
और दिन ढले
कुछ मोगरे के फूलों के साथ
लौटना चाहता है घर
सर्दी, गर्मी, बरसात, हर मौसम में
सैलानियों के इन्तज़ार में
खड़ा रहता है
किसी घुमावदार मोड़ पर
हर नये वज़न के साथ
कस लेता है कमर
पृथ्वी के गुरूत्वाकर्षण को
देता हुआ चुनौती
सही-सलामत ले जाता है
सैलानी को
उसके होटल वाले कमरे तक
जहाँ से पहाड़ दिखता है
खिड़की से बराबर
मैं नहीं गिन पाता
उसके चोट के निशान,मैं नहीं गिन पाता
उसके बीते हुए बसंत,मेरे लिए शेरपा की उम्र
सबसे बड़ा सवाल है ( कविता संग्रह "हाथ सुंदर लगते हैं" से)

Sunday, July 10, 2011

शोक में डूबे हुए हैं खुशी के सातों रंग

शोक में डूबे हुए हैं खुशी के सातों रंग
(मक़बूल फ़िदा हुसैन के लिए एक कविता)



कैसे हो मक़बूल फ़िदा हुसैन
कहां हो - जन्नत या दोजख
क्या नसीब हुआ तुम्हें
इस जहान से कूच करने के बाद
जहां भी तुम हो
वहां रंग तो होंगे आस-पास
लाल-हरे-पीले- जिनमें डुबो कर अपनी
टहनी-जितनी लम्बी तूलिका
तुमने बना डाला है यह कैसा
हंसता हुआ इन्द्रधनुष
बिलकुल माधुरी दीक्षित की
हंसी-जैसा उन्मुक्त
पश्चिम के आकाश में
जिससे घोड़ों के हिनहिनाने की
आवाज़ें आया करती हैं
पूरब तक
कैसे हो मक़बूल फ़िदा हुसैन
कहां हो इस वक़्त
क्या तुम्हारी स्मृतियों में
आज भी बजते हैं राग
किसी श्वेत-पद्मासना की वीणा से
कौन सा वसन धारण करते हो
तुम आजकल
क्या जूते भी पहनने लगे हो वहां
बालों में लगाने लगे हो खिजाब
यह कैसा करिश्मा है मक़बूल फ़िदा हुसैन
कि तुम्हारे बाद गजगामिनी स्त्रियां
रहने लगी हैं उदास सात समन्दर
पार तक और
किष्किन्धा पहाड़ के तमाम वानर
शर्मिन्दा हैं अपनी नंगई पर
यह जान कर हैरानी तो होगी
तुम्हें मक़बूल फ़िदा हुसैन
कि कलकत्ता के बालीगंज सर्कुलर रोड वाले
आज़ाद हिन्द ढाबा की दीवार पर
शोक में डूबे हुए हैं खुशी के सातों रंग
कि यह बेवफ़ा शहर
नंगे पैर डोलने वाले
अपने जिद्दी आशिक़ को
सिर्फ़ इसलिए रखना चाहता है यादों में
कि उसे पसन्द थे मटन-टिक्का पराठे
और स्पेशल चाय
रंगों को रहने दो उदास मक़बूल फ़िदा हुसैन
कपड़े उतार कर लेटी है धरती तो उसे
लेटने दो अभी कुछ दिन और
उसे रंगों से खाली रहने दो
खाली रहने दो आज़ाद हिन्द ढाबा का
उदास टेबल कुछ दिन और
अभी उठने दो विरहिणी की देह से
भाप की तरह उठती पुकार
लेकिन रंगों से जब भी खाली होने लगें
आंखों में टिमटिमाते सपने इस धरती पर
तो फ़िर मक़बूल फ़िदा, आ जाना नंगे पांव दौड़ कर
आसमान में डुबो कर टहनी-जितनी लम्बी कूची
दम तोड़ते सपनों को रंगत बख्शना, हुसैन ।