चेहरे ..
कभी आऊँगा उज्जैन तो
आऊँगा जरूर आपके घर
कही जब मैंने यह बात कवि चंद्रकांत देवताले से
हँसते हुए बोले, उज्जैन में और है भी क्या देखने लायक
उज्जैन में दो ही तो चीजें हैं - एक महाकाल, दूसरा देवताले
चौरंगी रोड के चौधरी एस्टेट गेस्टहाउस वाले कमरे में तैरती उस हँसी का गवाह सिर्फ़ मैं था
सच है कि हर शहर का एक चेहरा होता है
जैसे कि चंद्रकांत देवताले का चेहरा था उज्जैन का चेहरा
उज्जैन जहाँ मैं कभी नहीं गया लेकिन जिसे पहचानता रहा इसी तरह
चन्द्रमा को गिटार की तरह बजाने वाला वह कवि तो अब रहा नहीं उज्जैन में
लेकिन एक नया चेहरा उज्जैन का अब भी है जो कविमित्र नीलोत्पल से मिलता है
जाऊँगा कभी उज्जैन तो नीलोत्पल से मिलूँगा
इंदौर जाऊँगा तो जरूर मिलूँगा आशुतोष दुबे से
गोरखपुर जाऊँगा जब भी तो गणेश पाण्डेय से मिलूँगा
जाऊँगा इलाहाबाद तो संतोष चतुर्वेदी से मिलूँगा, मिलूँगा सुबोध शुक्ल से
बनारस जाऊँगा अगली बार तो हमेशा की तरह मिलूँगा ज्ञानेन्द्रपति से गोदौलिया पर
बाँदा जाऊँगा तो मिलूँगा केशव तिवारी से, कानपुर में बाबूपुरवा वाले श्रमिक जी से मिलूँगा
कितनी-कितनी जगहों के कितने-कितने चेहरे बना रखे हैं मैंने
मैं शहरों को और गाँवों को इसी तरह पहचानता रहा हूँ अब तक
कितने धुले-धुले और साफ-साफ नजर आते हैं ये सब दूर से भी
लेकिन जब-जब सोचता हूँ दिल्ली के बारे में सब गड्डमड्ड हो जाता है
इतना मेकअप है दिल्ली के चेहरे पर कि पहचान नहीं पाता दिल्ली को
पूछता हूँ खुद से - कहो नील कमल, किससे मिलोगे जब जाओगे दिल्ली ?
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घर ..
(कवि अग्निशेखर के लिए)
कितनी हसरत से कोई आदमी बनाता है एक घर
उसे क्या पता एक दिन कुछ उन्मादी आयेंगे और
कहेंगे उसे अपना घर छोड़ कर चले जाने के लिए
लम्बी एक साँस छोड़ता है वह और चल पड़ता है
मय सरोसामान एकदिन चल पड़ता है अँधेरे में ही
आँखों में नदियों का जल थामे वह चल पड़ता है
सीने बीच धधकती आग छुपाए वह चल पड़ता है
पीठ पर उसके एक बक्सा होता है लोहे का, उसमें
जितना अँटता है सामान उससे ज्यादा छूट जाता है
घर में छूट गए खुशियों के दिन बड़ी दूर तक उसके
पीछे पीछे चलते हैं और थककर घर में लौट जाते हैं
पीछे मुड़कर आखिरी बार के लिए वह देखता है घर
और जलता हुआ पाता है अपने देखे हुए सपनों को
पास उसके भारी गठरी में अब कोई सपना भी नहीं
सपनों से खाली अपनी गठरी उठाये वह चल देता है
किसी एक भयंकर रात में वह घिरा होता है आग से
उसके गले से फूटती है घुटती हुई एक करुण पुकार
पानी पानी पुकारता है वह नींद खुल जाने के बाद तक
और पाता है एक तम्बू ही अब उसका स्थायी निवास है
जलावतनी में बेघर हो गए आदमी की पुकार को सुनो
उसकी भाषा में तुम मत ढूँढ़ो व्याकरण की त्रुटियों को
मत पूछो उससे कि कहाँ कहाँ दस्तखत कर दिए उसने
मत पूछो किन जुलूसों में और क्योंकर चलता रहा वह
घर लुट गया जिसका उसे घर लौटाओ फिर बात करो उससे ।
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निर्विरोध ..
कुछ नहीं हुआ
कुछ भी तो नहीं हुआ
सरकार का इकबाल बुलन्द हो
गिनती की हत्याएँ हुईं - कुछ नहीं हुआ
थोड़े लोग जख्मी हुए - कुछ नहीं हुआ
लोग इलाक़ाबदर हुए - कुछ नहीं हुआ
कहीं कुछ नहीं हुआ, कुछ भी तो नहीं हुआ
सरकार, आप फिर चुन लिए गए निर्विरोध !
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जगह ..
एक जगह थी
जहाँ आँख मूँद कर
जाया जा सकता था किसी भी वक़्त
अपने कवच उतार कर, एकदम बेफिक्र
एक जगह थी
जहाँ अँधेरे में भी
प्रवेश किया जा सकता था कभी भी
अपने हथियार छोड़कर, बिलकुल बेहिचक
एक ही तो जगह थी
जहाँ के चप्पे-चप्पे को पहचानते थे कदम
जहाँ के रेशे-रेशे में ऐतबार एक था हरदम
मरण फाँद यह कौन रख गया, ठीक उसी जगह ?
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बैलट बाबा ..
बैलट बाबा
खून खराबा
कितना और चलेगा
अब तक जानें कितनी चली गई हैं
घर-वर और दुकानें कितनी चली गई हैं
आग लगी है चहुँदिस धू-धू जलता देखो
खड्गहस्त हत्यारा छुट्टा चलता देखो
किससे कौन लड़ेगा झगड़ा यहाँ फँसा है
कहाँ कौन है तगड़ा रगड़ा यहाँ फँसा है
प्रजातंत्र की गाय दुधारू जाने कब से दूह रहे वे
सानी-पानी किए बिना ही दूध मलाई लूट रहे वे
इससे तो बढ़िया पानीपत
और पलासी के मैदानों में वे लड़ते औ' मरते
मध्ययुगी नियमों से इक्कीसवीं सदी के लोकतंत्र
के रक्त सने अध्यायों का ऐसा पाठ न करते ।
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[कविता बिहान, दिसम्बर 2018 अंक में प्रकाशित]