Saturday, February 4, 2012

ओ मेरी शापित कविताओं



बदचलन हो गये हैं शब्द
बदल दिये हैं सुलूक उन्होंने
कविता में


अब लिखता हूँ प्रेम तो
नहीं खिलता है कोई एक फूल
बस एक गागर रीती सी
डूबती जाती है
हृदय की गहराइयों से
डुब डुब डुबुक डुबुक
की आवाज़ें आती हैं


घृणा लिखते ही कागज पर
नहीं छिटकती हैं लुत्तियाँ
दुख लिखने पर नम नहीं होता
कठिन करेज कोई पहले जैसा


सियाही आँसुओं की हो या
रोशनाई हो लहू सी
इबारतें अब नहीं खिलती हैं
अँधेरे में जुगनुओं की तरह


इन शब्दों का क्या करूँ मैं
जो मेरे आस पास पसरे रहते हैं
सहवास के बाद की निर्लिप्तता में
निस्पन्द ठण्डे जिस्म हों जैसे


आखिर कब टूटेगा कविता का तिलिस्म
आखिर कब लिखी जायेगी वह कविता
जिसके शब्द बोलते होंगे
कि जैसे पान खाये होठों से
बोलती है सुर्ख़ी


ओ मेरी शापित कविताओं
तुम्हारी मुक्ति के लिये , लो
बुदबुदा रहा हूँ वह मन्त्र
जिसे अपने अन्तिम हथियार
की तरह बचा रखा था मैंने


तुम्हें ही वरण करने थे
मेरे कवच और कुण्डल
मुझे काम आना था इसी तरह
कुछ शब्दों को अर्थ सौंपते हुए !


(नील कमल)

अरूप घोष की पेंटिंग - गूगल के सौजन्य से

10 comments:

  1. बहुत अच्छी कविता ,नीलकमल जी ! कविता के सीमित प्रभाव के पीछे पाठक/श्रोता की संवेदनहीनता है या उस तक बात को पहुँचाने में शब्द-सामर्थ्य की कमी ,यह ज्वलंत प्रश्न है जो सबका साझा है ! ये तो है कि तो कविता के कहने के ढंग और पाठक/श्रोता के समझने के ढंग में एक फाँक है जिसके बहुत से कारण हैं ,जिन्हें समझा जा रहा है और समझा जाना है ! कविता में आपकी पीड़ा जायज है जो कविता के माध्यम से आम-जन से जुड़ने के संकट को लेकर है !

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  2. बहुत अच्छी कविता है भाई....एकदम नब्ज पर उंगली रखती हुई... जैसे लग रहा है कि आपने वह बात कह दी है... जो कई दिनों से मैं कहना चाहता था...कविता की यही तो सार्थकता होती है...दिल से बधाई....

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  3. धन्यवाद मित्र ,अभी अभी पढी ,शाप क्यो है ? जानकर अच्छा लगा ।

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  4. बहुत ही अच्छी कविता नील कमल जी| किताब मंगवानी है मुझे, प्रकाशक का संपर्क चाहिए

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  5. plz remove this word-verification thing from ur blog setting.it does not help at all

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  6. आप सबका हृदय से आभार

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  7. Badhai! Aage bhee aapko padna chahunga
    . Abhaar neel kamal jee.- Kamal jeet Choudhary ( j and k )

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