कि हत्यारे से कहूँ जाओ माफ़ किया
दुःख के पोखर में जिसने डुबोया
दुःख की नदी में डूबकर मरे यही चाहा
मुट्ठीभर फल खाने वालों के लिए
कोटि कोटि जन को कर्म की नसीहत करने वाले
धर्मग्रंथ को क्यों न फूँक कर ताप लूँ इसी जाड़े में
पिद्दी सी प्रजा हूँ तो क्या
जिस राजा ने नरक बनाया जीवन जन जन का
सरापता हूँ मर जाये जैसे ही करे अगला अन्याय
बेईमान न्यायाधीश लिखने को हो
जब कोई फैसला वंचित जन के हक़ के ख़िलाफ
कोढ़ फूटे उसकी अँगुलियों में और कलम छूट जाए
कवि से उम्मीद न करें जनाब
कि करेगा वह हुस्न और इश्क़ की बातें ऐसे वक़्त
तिलमिलाहट से न भर दे कागज पर छपी कविता
उसे कुत्ते की पूँछ में बाँध दीजिए ।
- नील कमल
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