Saturday, October 1, 2011

मैं एक कवि को जानता था




मैं एक कवि को जानता था । कोलकाता के कॉलेज स्ट्रीट इलाके में स्थित पातीराम-बुकस्टॉल पर बांग्ला की लघु पत्रिकाएँ देख रहा था । "कविता कविता" नाम की एक पत्रिका ने सहज ही अपनी ओर ध्यान खींच लिया । सम्पादक का नाम लिखा था कार्तिक देवनाथ । पत्रिका के उपलब्ध दो अंक ले कर घर आ गया । भीतर बहुत सी अच्छी कविताओं के बीच कार्तिक देवनाथ की कुछ कविताओं ने बहुत प्रभावित किया । सम्पादकीय पते पर पत्र लिखा - बांग्ला में । मेरे आश्चर्य का ठिकाना न रहा जब स्वयं कवि कार्तिक देवनाथ एक दिन हमारे घर आ पहुँचे । दोपहर का वक्त था । बातचीत के बाद जब चलने को हुए तो कर्तिक बाबू ने मुझे भी साथ चलने को कहा । लखनवी अन्दाज में अब मैं कवि के साथ उनके घर तक गया । बाँसद्रोणी में उनका एक कच्चा घर था । पानी बिजली कुछ भी नहीं । कार्तिक यहाँ अपनी कविताएँ रचते थे । उनकी पत्नी दीपा और स्वयं कार्तिक किसी मामूली से कारखाने में काम करते थे जहाँ बैग वगैरह बनते थे । कमाई बहुत थोड़ी लेकिन उसी से यह "कविता कविता" पत्रिका निकालते थे । कहते थे यही मेरी सन्तान है । फ़िर तो गाहे बगाहे मिलना हो जाता था । कवि देवाशीष साहा तथा कवि-कथाकार दीपंकर राय से भी परिचय हुआ । लम्बे व्यवधान के बीच कभी कभी इनसे मिलना हो ही जाता था । कार्तिक देवनाथ की कुछ कविताऒं का अनुवाद मैंने प्रगतिशील वसुधा के बांग्ला साहित्य पर केन्द्रित अंक के लिए अरविन्द चतुर्वेद को दिया । इस बीच वह प्रतीक्षित अंक नही आ पाया और अतिथि सम्पादक बदलते रहे । लम्बी प्रतीक्षा के बाद भोपाल से प्रकाशित दिग्दर्शक पत्रिका में कार्तिक देवनाथ की पाँच कविताओं का हिन्दी अनुवाद प्रकाशित हुआ । हिन्दी में पहली बार इस कवि को प्रकाशित होता देख मुझे भी सन्तोष का अनुभव हुआ । इस बीच नदियों में बहुत पानी बह चुका था । मैंने दीपंकर राय को फ़ोन लगाया यह बताने के लिए कि कार्तिक बाबू की कविताएँ हिन्दी में छप गई हैं । लेकिन तभी यह दुखद संवाद मिला कि कार्तिक अब इस जगत में नहीं रहे । यहाँ कार्तिक देवनाथ की एक कविता हिन्दी के पाठकों के लिए -
किरासिन वाली ढिबरी

किरासिन वाली
ढिबरी के कानों में कहीं
मैंने ज्यादातर कविताएँ

गहरी रात तक जागे रहते हैं
टिमटिमाते शब्द

पलकों की मीठी छुअन से
पिरोता शब्दों की लड़ियाँ
मुग्ध होता हूँ

कविता सुनते सुनते सो जाने पर
एक ऐसा वक्त भी आता है
जब नहीं होता घर में कोई भी आसरा
न कोई जतन कि उसे जगाऊँ

निर्जन अंधकार, हाथों से
छीन ले जाता है नींदें और
पढ़ता रहता है एक एक पंक्ति

एक पूरी कविता का वाद्य जब जा चुका होता है
भोर की रोशनी में सुनता हूँ कविता का पाठ

सूरज से
करता हूँ सवाल
अब तक जितनी
पृथ्वियों का प्रसव किया तुमने
मेरी यह किरासिन वाली ढिबरी
उन सबको रास्ता दिखा सकती है ।

 
 
 
  

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