शोक में डूबे हुए हैं खुशी के सातों रंग
(मक़बूल फ़िदा हुसैन के लिए एक कविता)
कैसे हो मक़बूल फ़िदा हुसैन
कहां हो - जन्नत या दोजख
क्या नसीब हुआ तुम्हें
इस जहान से कूच करने के बाद
जहां भी तुम हो
वहां रंग तो होंगे आस-पास
लाल-हरे-पीले- जिनमें डुबो कर अपनी
टहनी-जितनी लम्बी तूलिका
तुमने बना डाला है यह कैसा
हंसता हुआ इन्द्रधनुष
बिलकुल माधुरी दीक्षित की
हंसी-जैसा उन्मुक्त
पश्चिम के आकाश में
जिससे घोड़ों के हिनहिनाने की
आवाज़ें आया करती हैं
पूरब तक
कैसे हो मक़बूल फ़िदा हुसैन
कहां हो इस वक़्त
क्या तुम्हारी स्मृतियों में
आज भी बजते हैं राग
किसी श्वेत-पद्मासना की वीणा से
कौन सा वसन धारण करते हो
तुम आजकल
क्या जूते भी पहनने लगे हो वहां
बालों में लगाने लगे हो खिजाब
यह कैसा करिश्मा है मक़बूल फ़िदा हुसैन
कि तुम्हारे बाद गजगामिनी स्त्रियां
रहने लगी हैं उदास सात समन्दर
पार तक और
किष्किन्धा पहाड़ के तमाम वानर
शर्मिन्दा हैं अपनी नंगई पर
यह जान कर हैरानी तो होगी
तुम्हें मक़बूल फ़िदा हुसैन
कि कलकत्ता के बालीगंज सर्कुलर रोड वाले
आज़ाद हिन्द ढाबा की दीवार पर
शोक में डूबे हुए हैं खुशी के सातों रंग
कि यह बेवफ़ा शहर
नंगे पैर डोलने वाले
अपने जिद्दी आशिक़ को
सिर्फ़ इसलिए रखना चाहता है यादों में
कि उसे पसन्द थे मटन-टिक्का पराठे
और स्पेशल चाय
रंगों को रहने दो उदास मक़बूल फ़िदा हुसैन
कपड़े उतार कर लेटी है धरती तो उसे
लेटने दो अभी कुछ दिन और
उसे रंगों से खाली रहने दो
खाली रहने दो आज़ाद हिन्द ढाबा का
उदास टेबल कुछ दिन और
अभी उठने दो विरहिणी की देह से
भाप की तरह उठती पुकार
लेकिन रंगों से जब भी खाली होने लगें
आंखों में टिमटिमाते सपने इस धरती पर
तो फ़िर मक़बूल फ़िदा, आ जाना नंगे पांव दौड़ कर
आसमान में डुबो कर टहनी-जितनी लम्बी कूची
दम तोड़ते सपनों को रंगत बख्शना, हुसैन ।
(मक़बूल फ़िदा हुसैन के लिए एक कविता)
कैसे हो मक़बूल फ़िदा हुसैन
कहां हो - जन्नत या दोजख
क्या नसीब हुआ तुम्हें
इस जहान से कूच करने के बाद
जहां भी तुम हो
वहां रंग तो होंगे आस-पास
लाल-हरे-पीले- जिनमें डुबो कर अपनी
टहनी-जितनी लम्बी तूलिका
तुमने बना डाला है यह कैसा
हंसता हुआ इन्द्रधनुष
बिलकुल माधुरी दीक्षित की
हंसी-जैसा उन्मुक्त
पश्चिम के आकाश में
जिससे घोड़ों के हिनहिनाने की
आवाज़ें आया करती हैं
पूरब तक
कैसे हो मक़बूल फ़िदा हुसैन
कहां हो इस वक़्त
क्या तुम्हारी स्मृतियों में
आज भी बजते हैं राग
किसी श्वेत-पद्मासना की वीणा से
कौन सा वसन धारण करते हो
तुम आजकल
क्या जूते भी पहनने लगे हो वहां
बालों में लगाने लगे हो खिजाब
यह कैसा करिश्मा है मक़बूल फ़िदा हुसैन
कि तुम्हारे बाद गजगामिनी स्त्रियां
रहने लगी हैं उदास सात समन्दर
पार तक और
किष्किन्धा पहाड़ के तमाम वानर
शर्मिन्दा हैं अपनी नंगई पर
यह जान कर हैरानी तो होगी
तुम्हें मक़बूल फ़िदा हुसैन
कि कलकत्ता के बालीगंज सर्कुलर रोड वाले
आज़ाद हिन्द ढाबा की दीवार पर
शोक में डूबे हुए हैं खुशी के सातों रंग
कि यह बेवफ़ा शहर
नंगे पैर डोलने वाले
अपने जिद्दी आशिक़ को
सिर्फ़ इसलिए रखना चाहता है यादों में
कि उसे पसन्द थे मटन-टिक्का पराठे
और स्पेशल चाय
रंगों को रहने दो उदास मक़बूल फ़िदा हुसैन
कपड़े उतार कर लेटी है धरती तो उसे
लेटने दो अभी कुछ दिन और
उसे रंगों से खाली रहने दो
खाली रहने दो आज़ाद हिन्द ढाबा का
उदास टेबल कुछ दिन और
अभी उठने दो विरहिणी की देह से
भाप की तरह उठती पुकार
लेकिन रंगों से जब भी खाली होने लगें
आंखों में टिमटिमाते सपने इस धरती पर
तो फ़िर मक़बूल फ़िदा, आ जाना नंगे पांव दौड़ कर
आसमान में डुबो कर टहनी-जितनी लम्बी कूची
दम तोड़ते सपनों को रंगत बख्शना, हुसैन ।
बेहतरीन कविता....
ReplyDeleteरंगों को रहने दो उदास मक़बूल फ़िदा हुसैन
कपड़े उतार कर लेटी है धरती तो उसे
लेटने दो अभी कुछ दिन और
उसे रंगों से खाली रहने दो
खाली रहने दो आज़ाद हिन्द ढाबा का
उदास टेबल कुछ दिन और
अभी उठने दो विरहिणी की देह से
भाप की तरह उठती पुकार
बढ़िया....
maarmik aur maanee khej
ReplyDeleteरंगों को रहने दो उदास मक़बूल फ़िदा हुसैन
ReplyDeleteकपड़े उतार कर लेटी है धरती तो उसे
लेटने दो अभी कुछ दिन और
उसे रंगों से खाली रहने दो
खाली रहने दो आज़ाद हिन्द ढाबा का
उदास टेबल कुछ दिन और
अभी उठने दो विरहिणी की देह से
भाप की तरह उठती पुकार .. bahut sundar abhivyakti. hussain aisi kavita sunkar to aa he jaayenge. :)
बहुत ही मार्मिक!!!!!!!!
ReplyDeleteयह कविता भाई राजेन्द्र शर्मा के विशेष आयोयन हेतु..
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