Monday, July 28, 2025

बड़ी मुश्किल से होता है अदब में नामवर पैदा (स्मृति लेख)


"जो आलोचक कविता में अर्थवान शब्द की समस्त संभावनाओं की खोज किए बिना ही एक सामान्य वक्तव्य या संदेश के आधार पर किसी कविता पर मूल्य-निर्णय देने का दावा करता है, वह कविता का आलोचक नहीं है, न होगा" । 'कविता के नए प्रतिमान' पुस्तक के पृष्ठ-41पर दर्ज यह सूत्र वाक्य साहित्य आलोचना का एक मानदण्ड है और किसी भी नए आलोचक के लिए डायरी में लिख कर रखने योग्य है । नामवर सिंह प्रथमतः एक आलोचक थे । उनका साहित्यिक व्यक्तित्व विविधवर्णी और विराट है ।  मुझे लगता है खुद नामवर सिंह के मूल्यांकन के लिए यह जरूरी है कि एक सामान्य वक्तव्य या संदेश के आधार पर कोई मूल्य निर्णय न दिया जाए । 

नामवर के रूप कई हैं - आलोचक नामवर, कवि नामवर, अध्यापक नामवर, वक्ता नामवर, सम्पादक नामवर, लोकार्पणकर्ता नामवर, विवादित नामवर, मर्यादित नामवर आदि आदि । नामवर सिंह के व्यक्तित्व के पहलू इतने हैं कि उन्हें याद करते हुए इस बात का ध्यान रखना बेहद जरूरी हो जाता है कि हम उन्हें देख कहाँ से रहे हैं । अर्थात वह कोण जहाँ से हम नामवर सिंह को देखते हैं वह हमारे देखने की सीमा को तय करता है । नामवर सिंह के जीवन के आखिरी वर्षों के आधार पर उनके बारे में राय बनाना कुछ वैसा ही होगा जैसा कि क्रिकेट प्रेमियों का सुनील गावस्कर के बारे में उन्नीस सौ सत्तासी के विश्व कप टूर्नामेंट के मैचों में गावस्कर के प्रदर्शन के आधार पर अपनी राय बनाना। दो हजार दस के बाद हिंदी साहित्य में अपनी आँखें खोलने वाली जिस पीढ़ी ने नामवर सिंह को बाहुबली नेता पप्पू यादव की किताब का विमोचन करते देखा है, जिसने नामवर सिंह को भाजपा सरकार के मंत्रियों से सम्मानित होते देखा है, जिसने नामवर सिंह को पुरस्कार वापसी के खिलाफ बोलते सुना है, जिसने रवीश कुमार के प्राइम टाइम शो में नामवर सिंह को भगवान को याद करते हुए देखा है, उस पीढ़ी के लिए यह जरूरी है कि वह नामवर की बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय तक की यात्रा को भी गौर से देखे । 

नामवर सिंह एक विद्यार्थी के रूप में अपनी प्रतिभा के स्पार्क के साथ बीएचयू में आते हैं । यह हिंदी साहित्य का वह दौर है जिसमें हजारी प्रसाद द्विवेदी, और रामविलास शर्मा जैसे दिग्गज साहित्यिक अपनी पूरी आभा के साथ मौजूद हैं । इसी दौर में जयशंकर प्रसाद और निराला जैसे कवि और प्रेमचंद जैसे कथाकार की उपस्थिति से हिंदी का आकाश जगमग-जगमग सा है । आश्चर्य नहीं कि साहित्य में नामवर सिंह का प्रवेश भी गीतों के जरिए होता है । अपनी साहित्यिक अभिरुचि और इस क्षेत्र में आने का श्रेय नामवर सिंह अपने अध्यापकों को देते हैं जो उनको उदयप्रताप कॉलेज और बीएचयू में मिले । नामावर ने अपने आरंभिक साहित्यिक जीवन में अपभ्रंश साहित्य पर महत्वपूर्ण काम किया, पृथ्वीराज रासो पर काम किया । बीएचयू में अध्ययन के दौरान नामवर, हजारी प्रसाद द्विवेदी के न सिर्फ निकट आये बल्कि उनके प्रिय शिष्य भी बने । बीएचयू से अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद नामवर सिंह योग्यता के बावजूद पाँच साल तक बेरोजगारी के दिन बिताने को विवश हुए । इस बात को समझना होगा । 

नामवर सिंह स्वयं एक साक्षात्कार में संकेत करते हैं कि बीएचयू में जो लोग हजारी प्रसाद द्विवेदी को पसंद नहीं करते थे वे चाहते थे कि वे बीएचयू में प्राध्यापक न हो पायें। और तथ्य है कि नामवर की नियुक्ति तो अवश्य हुई बीएचयू में लेकिन वे वहाँ टिक नहीं सके । अंततः नामवर की बीएचयू की नौकरी नहीं बची । जिस बनारस ने नामवर को बनाया उसी बनारस में नामवर के लिए नौकरी नहीं थी । इस दंश को समझना कठिन नहीं है । बनारस से विस्थापन नामवर सिंह के जीवन का वह टर्निंग प्वाइंट है जहाँ से भविष्य के उस नामवर सिंह का बनना आरम्भ होता है जिसे हिंदी साहित्य की केंद्रीय और अनिवार्य उपस्थिति के रूप में लोग जानते और मानते रहे हैं । आपने खास अंदाज़ में नामवर बनारस छूटने के दर्द को विनोद करते हुए यूँ जाहिर करते हैं कि "भैरव का सोटा लगा तो बनारस छूट गया" । अपने अंतिम दिनों में नामवर सिंह बनारस लौटने की इच्छा भी व्यक्त करते हैं लेकिन नियति को वह स्वीकार्य नहीं था । 

कम लोग जानते हैं कि नामवर सिंह भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के कैंडिडेट के रूप में लोकसभा का चुनाव भी लड़े । वह बनारस का दौर था । चंदौली की लोकसभा सीट पर 1959 के मध्यावधि लोकसभा चुनाव में समाजवादी नेता राममनोहर लोहिया के खिलाफ नामवर चुनावी मैदान में थे । एक साक्षात्कार में नामवर सिंह बताते हैं कि पार्टी ने राम मनोहर लोहिया के खिलाफ उनको इसलिए उतारा था क्योंकि लोहिया कम्युनिस्टों के प्रति नकारात्मक रुख रखते थे । नामवर की हवा अच्छी बन रही थी । लोहिया ने कास्ट कार्ड खेल दिया और प्रभुनारायण सिंह के पक्ष में अपनी दावेदारी से हट गए । अब दो ठाकुर मैदान में थे । नामवर वह चुनाव हार गए । इसके बाद वे सक्रिय राजनीति में नहीं गए । लेकिन लेखक संगठन के मोर्चे पर वे बराबर हस्तक्षेप करते रहे । 

बीएचयू से बाहर होने के बाद नामवर सिंह जोधपुर विश्वविद्यालय में प्राध्यापक होकर गए । बाद में वे आगरा और अंततः जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में आये । और आये तो अपनी पूरी धमक के साथ आये । नामवर सिंह से हिंदी साहित्य पढ़ कर निकलने वाली कई पीढ़ियाँ आज देश के न जाने कितने संस्थानों में काम कर रही हैं । 

अपने विपुल लेखन से नामवर सिंह ने हिंदी साहित्य को न सिर्फ समृद्ध किया बल्कि आलोचना के क्षेत्र में नई स्थापनाएँ भी दी हैं । अपने समय की साहित्यिक बहसों में नामवर का हस्तक्षेप निर्णायक रहा है इस बात से किसे इनकार होगा । नामवर सिंह ने जितना लिखा उससे अधिक भाषण दिए । अब उनके भाषण भी पुस्तक रूप में प्रकाशित होकर आ रहे हैं । कहने वाले उन्हें वाचिक परम्परा का आलोचक भी कहते हैं । नामवर सिंह को जिन लोगों ने मंच से बोलते सुना है वे अवश्य मानेंगे कि वैसा कुशल वक्ता विरल होता है । सर्वविदित है कि किसी भी विषय पर नामवर से पहले बोलने के लिए खड़े होने वाले वक्ता को यह चिंता रहती थी कि जब नामवर बोलेंगे तो अपने तर्कों से उसकी स्थापनाओं को ध्वस्त कर देंगे । नामवर के बाद मंच पर आने वाले वक्ता की चिंता यह होती कि नामवर के बोलने के बाद उसके लिए अब कुछ बचा नहीं रह गया । ऐसा था नामवर के भाषणों का जलवा । 

नामवर के कट्टर विरोधी भी मानेंगे कि नामवर जैसा अध्ययनशील और ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में होने वाले अद्यतन विमर्शों के प्रति वैसा मननशील विद्वान हिंदी में दूसरा नहीं था । नामवर की दीप्त बौद्धिकता उनके समकालीन लेखकों विचारकों को आतंकित करती थी । इसका प्रमुख कारण यह था कि नामवर के जितना अध्ययन उनके समकालीनों में कम देखा गया । इसका स्वाभाविक परिणाम इस रूप में सामने आता कि नामवर अगर कह दें कि हिंदी में उपन्यास विधा अब मर गई है तो यह मान लिया जाता कि ऐसा ही है और अगले दिन से यह बात दोहराई जाने लगती । नामवर का यह कह देना कि अमुक कवि महत्वपूर्ण है बहुत वजन रखता था और लगभग नामवर की बातों को अकाट्य मान लिया जाता था । एक आलोचक के लिए इस कद को अर्जित करना कोई हँसी-ठट्ठा नहीं है । 

'कविता के नए प्रतिमान' पुस्तक के आने के साथ अगर मुक्तिबोध हिंदी कविता के केंद्र में मजबूती के साथ खड़े दिखाई देते हैं तो इसके पीछे नामवर सिंह की अपने समकालीन आलोचकों से लम्बी बहसों की भी अनिवार्य भूमिका को स्वीकार करना होगा । इन बहसों के प्रमाण इसी पुस्तक के अंदर देखे जा सकते हैं । तमाम किन्तु-परन्तु से हट कर यह तथ्य मुझे महत्व का लगता है कि एक आलोचक किस साहस के साथ तर्कों-विश्लेषणों से लैस होकर एक कवि को उसका न्याय्य अधिकार दिलाने के लिए वैचारिक लड़ाई लड़ता है । इसी पुस्तक में पृष्ठ 251 पर नामवर सिंह लिखते हैं - 'यह विडम्बना अवश्य देखता हूँ कि जिस व्यक्तिपरक-आत्मपरक काव्य-सिद्धांत का खंडन कविता के नए प्रतिमान में आद्यंत अनुस्यूत है उसी का मुझे समर्थक बताया जाता है । इसे दृष्टिदोष कहने की अपेक्षा अपनी वाणी की दीनता चीन्ह कर चुप रह जाना ही श्रेयस्कर है ।' मुक्तिबोध की लम्बी कविताओं के ढाँचे और उनकी अंतर्वस्तु पर रामविलास शर्मा की अनेक आपत्तियों का सधा हुआ और सुचिंतित उत्तर नामवर सिंह देते हैं और ऐसा करते हुए कहीं भी आक्रामक नहीं होते । यह एक बड़े आलोचक की पहचान है । हिंदी में ऐसे विद्वानों की कमी नहीं जिनको 'कविता के नए प्रतिमान' कमज़ोर किताब मालूम होती है और जिनको ऐसा लगता है कि नामवर की यह किताब पुरस्कार के लिए दो तीन हफ्ते में लिखी गई किताब है और इसमें मौलिक कुछ नहीं है । ऐसे विद्वानों के लिए मेरा विनम्र प्रस्ताव है - दो तीन हफ्ते के लिए आपके भोजन-आवास आदि की व्यवस्था मेरी, आइए आप और कविता के नए प्रतिमान जैसी आलोचना की एक किताब लिख कर दीजिए । 

नामवर सिंह के साथ मेरी पहली और एकमात्र भेंट कायदे से संभव हुई 2015 के फरवरी में । उससे पहले उन्हें करीब से सुनने और देखने के अवसर तो बहुत से आये थे लेकिन उनसे मिलने में हमेशा एक संकोच बना रहा । कविताओं का पहला संग्रह जब 2010 में आया तो डरते-डरते उसकी एक प्रति नामवर जी के पते पर भी भेजी गई । भेजने के बाद बात आई गई हो गई । यह प्रत्याशा तो बिलकुल भी नहीं थी कि वे किताब को देखेंगे या उसपर कोई प्रतिक्रिया उनकी ओर से आ सकती है । लेकिन हुआ यह कि एक दिन सुबह दोस्तों के फोन आने लगे । पता चला कि अभी थोड़ी देर पहले दूरदर्शन पर "हाथ सुंदर लगते हैं" किताब पर नामवर सिंह के साथ मदन कश्यप की बातचीत प्रसारित हुई है । यह अप्रत्याशित था और साथ ही सुखद भी । सोचा कि कम से कम उनको धन्यवाद तो कहना चाहिए । पहली बार नामवर जी को फोन किया । उधर से उनकी गंभीर आवाज़ आई - "बहुत अच्छा लिख रहे हो । ऐसे ही लिखते रहो" । मैंने अफसोस जाहिर किया कि सूचना न होने के कारण वह प्रोग्राम देख नहीं सका । वे बोले - "थोड़ी सी बातचीत कर ली तो ऐसा कौन सा तीर मार लिया कि फोन करके सूचना दी जाए" । यह सब मैं नामवर सिंह के मुँह से सुन रहा था, अपने समय के उस साहित्यिक से सुन रहा था जिसे हिंदी आलोचना का शिखर पुरुष कहा जाता है । कलकत्ता के दोस्तों में इस बात को लेकर चर्चा होती रही । एक तरफ बधाइयाँ देने वाले तो दूसरी ओर ईर्ष्या से भर जाने वाले मित्र । यह सब देखना सुनना एक नया अनुभव था । उन्हीं दिनों एक मित्र ने यह बात चला दी कि नामवर सिंह ने नील कमल पर बात इसलिए कि क्योंकि यह भी "सिंह" है और बनारस से है । एक किस्सा यह भी चला कि नील कमल का प्रकाशक बहुत प्रभावशाली है, उसी ने नामवर सिंह से सिफारिश की होगी । तो इन किस्सों का लब्बोलुआब यह कि नामवर सिंह का किसी कवि की पहली किताब का संज्ञान लेना हिंदी समाज में एक हैरतअंगेज बात रही है । इन बातों से अलग नामवर सिंह का एक सहृदय आलोचक होना मेरे लिए उनके विराट व्यक्तित्व का वह पक्ष था जिसपर हिंदी के साहित्यिक परिवेश में चर्चा कम होती है । उन्हें उठाने गिराने वाले साहित्यिक सत्ता केंद्र की तरह ही प्रक्षेपित किया जाता रहा है । बहरहाल मेरे व्यक्तिगत अनुभव में जो बात आई वो यह कि नामवर सिंह की पहुँच में नये से नया कवि भी है । और किसी कवि के लिए जिसकी अभी पहली ही किताब आई हो इससे प्रीतिकर बात और क्या हो सकती है कि नामवर सिंह ने उसे पढ़ा और पढ़ कर प्रतिक्रिया दी । बाद इसके यदा-कदा नामवर जी से फोन पर बात हो जाती । अक्सर मैं उनसे उनके स्वास्थ्य के बारे में पूछता और वे अनिवार्य रूप से यह पूछते कि अगली किताब कब आ रही है । दूसरे संग्रह के साथ जब मैंने स्वप्रकाशन का काम शुरू किया और जब 2014 में "यह पेड़ों के कपड़े बदलने का समय है" छप कर आया तो उसकी प्रति नामवर सिंह के पते पर भी पोस्ट की । एकदिन सुबह-सुबह नामवर सिंह का फोन आया । आश्चर्य और खुशी से फोन उठाया । उधर नामवर जी की गंभीर आवाज़ थी - "अभी सुबह नहा-धोकर तुम्हारा संग्रह पढ़ने बैठा हूँ । छपाई बहुत छोटी है इसलिए मैग्निफाइंग ग्लास से पढ़ना पड़ रहा है । बहुत अच्छी कविताएँ हैं । यह कविता अभी देख रहा हूँ - इस नये भूखण्ड में" । और वे 'इस नये भूखण्ड में' कविता को पढ़कर मुझे सुनाते रहे । मैं चुपचाप सुनता रहा । मैं उन्हें यह बात कह नहीं सका कि दरअसल किताब की छपाई की लागत कम करने के लिए फॉण्ट छोटा रखना पड़ा । लेकिन यह बात भविष्य में ध्यान रखने की थी कि आगे जब भी किताब छापूँ तो फॉण्ट इतना छोटा न रखा जाए कि किसी बुज़ुर्ग को उसे पढ़ने के किए यूँ कष्ट उठाना पड़े । नामवर सिंह आपको पढ़ रहे हैं यह खुशी संसार के किसी भी बड़े ईनाम से बढ़कर है और यह खुशी मेरे हिस्से में आई । कुछ समय बाद एकदिन कवि मदन कश्यप ने सूचना दी कि अगले हफ्ते नामवर जी के साथ "यह पेड़ों के कपड़े बदलने का समय है" पर बातचीत दूरदर्शन पर प्रसारित होगी । इससे भी बड़ी जानकारी उन्होंने यह दी कि बातचीत किसी अन्य किताब पर तय थी लेकिन नामवर जी ने कहा कि आज उसपर नहीं इसपर बात करेंगे । और इस तरह झटपट वाली तैयारी में मदन जी ने वह बातचीत रेकॉर्ड की । अगले ही साल यानी 2015 में दिल्ली के बुक फेयर का कार्यक्रम बना तो इसके पीछे उद्देश्य नामवर सिंह से उनके घर पर जाकर मिलना था । फोन पर उनसे मैंने कहा कि दिल्ली आऊँगा तो आपके साथ कुछ घण्टे व्यतीत करना चाहूँगा और उन्होंने सहर्ष इसबात की अनुमति दी और कहा कि दिल्ली पहुँच कर उनको फोन कर लूँ । दिल्ली पहुँचा तो सबसे पहले नामवर सिंह को फोन किया और बताया कि आ गया हूँ । उन्होंने कहा कि आप ग्यारह बजे आ जाइये । शिवालिक अपार्टमेंट में नामवर जी के कमरे की घण्टी बजाई तो दरवाज़ा उन्होंने ही खोला और मना करने के बावजूद किचेन से एक ग्लास में पानी लेकर आये । फिर बातचीत शुरू हुई तो समय कैसे बीतता गया पता ही नहीं चला । यह एक समृद्ध करने वाली मुलाकात थी और मैं नामवर जी से इस सुखद भेंट की स्मृति को अपने लेखकीय जीवन की एक बड़ी घटना मानता हूँ । वहाँ से चलते-चलते कथाकार गौतम सान्याल किसी प्रयोजन से नामवर जी के यहाँ उपस्थित हुए । सम्भवतः बुक फेयर के किसी आयोजन में निमंत्रित करने के लिए पधारे थे । मेरे आग्रह पर नामवर जी के साथ एक फ़ोटो उन्होंने मेरे मोबाइल फोन से लिया जो आउट-ऑफ़-फ़ोकस होने के बावजूद मूल्यवान धरोहर है । एकाध फ़ोटो नामवर जी के मैंने भी इस भेंट की याद सँजोने के लिहाज से ले लिए थे उस दिन । यह नामवर सिंह के घर पर उनसे पहली और अंतिम भेंट साबित हुई । फोन पर जब भी बात हुई तो उन्होंने आने वाली किताब के बारे में पूछा । बाद के वर्षों में उनके गिरते स्वास्थ्य की खबरों से पूरा हिंदी संसार चिंतित होता रहा । रवीश कुमार के प्राइम टाइम में नामवर सिंह को देख कर मन बेहद दुखी रहने लगा । वे अपने अंतिम समय तक किताबों के बीच रहे । और उनके बाद उनकी किताबों का क्या होगा इसके लिए वसीयत भी कर गए । उनकी किताबें अब एक पुस्तकालय का हिस्सा होंगी जिससे हिंदी के विद्यार्थी और शोधार्थी लाभान्वित होंगे । 

मेरा मानना है कि नामवर की निर्मिति को समझने के लिए तत्कालीन बनारस और उत्तर प्रदेश के साथ ही देश की सामाजिक-राजनैतिक व्यवस्था की गहरी और सूक्ष्म जानकारी आपके पास होनी चाहिए । वह दौर ऐसा था जब आजादी के बाद नेहरू के नेतृत्व में कांग्रेस अपने सबसे चमकदार समय में देश की राजनीति में असरदार भूमिका में थी । बनारस सहित पूरे उत्तर प्रदेश की राजनीति में ब्राह्मणवाद की तसदीक उस दौर का कोई भी व्यक्ति कर सकता है । जाति आधारित व्यवस्था में इस ब्राह्मणवाद से अकादमिक संस्थाएँ भी अप्रभावित नहीं रह सकती थीं । 'अन्य' के लिए उस समय महत्वपूर्ण स्थानों तक जा पाना कितना कठिन रहा होगा इसकी कल्पना की जा सकती है । नामवर की विकट प्रतिभा इस ढाँचे के बीच विकसित होती है और कालान्तर में इस ढाँचे को चुनौती भी देती है । वे प्रगतिशील-वाम चेतना से उद्बुद्ध होकर आते हैं इसलिए अनिवार्य रूप से इन चुनौतियों से टकराते हैं । बिना लाग-लपेट के मुझे यहाँ कह देना चाहिए कि नामवर हिंदी में उसी तरह से आते हैं जिस तरह से ब्राह्मण ऋषियों के बीच विश्वमित्र। अनिवार्य रूप से उनका टकराव अपने समय के वशिष्ठों से भी होता है । नामवर का तप ही उन्हें विश्वमित्र की भाँति ऋषितुल्य बनाता है । कहना न होगा कि हिंदी की कामधेनु को लंबे समय तक नामवर ने अपने अधिकार में रखा और इन्हीं अर्थों में वे हिंदी में नायक की तरह स्थापित भी हुए ।

लेकिन जैसा कि हम जानते हैं इतिहास का हर नायक उत्त्थान और पतन के दौर से गुजरता है । नामवर को भी इन्हीं सबके बीच से गुजरना था । नामवर सिंह के पास अपने प्रिय लोगों को उपकृत और लाभान्वित करने की ताकत थी जिसका उपयोग भी उन्होंने किया । जिन प्रवृत्तियों का विरोध झेलते हुए नामवर सिंह यहाँ तक आते हैं उनका प्रतिकार करते हुए उनके ही जैसा कुछ-कुछ अगर वे भी बन जाते हैं तो इसे वर्चस्व के अपने तकाजे के तौर पर देखा जाना चाहिए । इन सबके बीच से अपने को परिष्कृत करते हुए आगे चलना ही असल चुनौती होती है । नामवर इन चुनौतियों को बखूबी जानते थे । नामवर सिंह इस बात को महसूस करते थे कि उन्हें वाचिक परम्परा का आलोचक कहने वाले प्रशंसा के रूप में ऐसा नहीं कहते बल्कि निंदा के रूप में ही कहते हैं । एक साक्षात्कार में वे कहते हैं कि - वाचिक परम्परा अशोक जी (संभवतः अशोक वाजपेयी) ने चला दिया । जो भी हो यह जुमला नामवर सिंह से जुड़ गया । इसके कारणों के विषय में सोचता हूँ तो पाता हूँ कि यह नामवर सिंह की मजबूरी नहीं बल्कि उनका सचेत चुनाव ही हो सकता है । नामवर सिंह में वह प्रतिभा थी जो उन्हें किसी भी साहित्यिक आयोजन की शान बनाती थी और निश्चित रूप से वे इसे इंज्वॉय भी करते रहे होंगे । ठहर कर व्यवस्थित लेखन उनसे छूटता गया । इसकी एक वजह मेरी दृष्टि में यह बनती है कि कालान्तर में हिंदी का काव्य परिदृश्य औसत कवियों से भरता चला गया । ये कवि नामवर के लिए वह चुनौती नहीं पेश कर रहे थे जो प्रगतिशील कविता और उससे आगे नयी कविता के दौर के कवि अपने समय में पेश करते रहे थे । नामवर सिंह खुद इस बात को मानते रहे हैं कि 1950 से लेकर 1964 के दौर में, जब वे बनारस में थे और जीवन-जीविका के संघर्ष के साथ उस दौर की साहित्यिक बहसों से जुड़ रहे थे और जब वे कविता छोड़ कर आलोचना में उतरे थे तब यह समय की माँग और समय के दबाव में ही संभव था । परिस्थितियों की एक बड़ी भूमिका रही है नामवर के लेखन में । बाद के वर्षों में जब नामवर जोधपुर और दिल्ली की अपनी यात्रा के दौर से गुजरते हैं तबतक युगीन परिस्थितियाँ बदल चुकी होती हैं । आलोचक को चुनौती दे सकने वाले लेखन का वह दौर बीत रहा होता है । औसत मेधा की प्रतिष्ठा के दौर में नामवर लिखने से बोलने की तरफ प्रवृत्त हुए होंगे ऐसा मेरा मानना है । यह बीच का रास्ता है जिसे कम्प्रोमाइज़िंग स्ट्रैटेजी भी कह सकते हैं । एक और कारण इसका यह भी विचारणीय हो सकता है कि अकादमिक और प्रशासनिक दायित्वों ने नामवर को वह समय नहीं दिया होगा जिसमें व्यवस्थित लेखन सम्भव हो, लेकिन यह कारण उतना महत्वपूर्ण तो नहीं हो सकता है । 

एक और बात जिसे लेकर वितर्क होता रहा है वह नामवर सिंह के पुस्तक लोकार्पण के हेतु सबसे अधिक डिमांड में रहने को लेकर है । एक साक्षात्कार में निर्मला जैन के आरोपों को डिफेंड करते हुए नामवर सिंह कहते हैं - 'आशीर्वादीलाल तो मैं नहीं हूँ' । लेकिन सच तो यह है कि नामवर के आशीर्वाद के प्रार्थी लेखकों की संख्या इतनी बड़ी है कि यह हिंदी के किसी भी लेखक के लिए ईर्ष्या का कारण भी हो तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए । नामवर के साथ एक फोटो खिंचवा लेने के लिए, नामवर के हाथ में अपनी किताब देख पाने के लिए और नामवर के मुँह से अपनी चर्चा सुन पाने के लिए हिंदी के लेखकों में एक प्रबल भावना तो रही है, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता । यह भी सोचने की बात है कि आखिर क्यों नहीं किसी अन्य हिंदी लेखक के साथ यह ग्लैमर जुड़ा । कलकत्ता की एक साहित्यिक सभा में संचालक ने नामवर सिंह को हिंदी का अमिताभ बच्चन कहा तो हॉल तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठा । उसके बाद नामवर अभिनय और साहित्य दोनों कलाओं के बीच के साझा रिश्ते पर बोले और निष्कर्ष यह निकला कि लेखक और अभिनेता के बीच 'नट' एक ऐसा तत्व है जो उनको जोड़ता है । नामवर की हाजिरजवाबी का कोई जोड़ नहीं था । वे यह मानते रहे हैं कि सभाओं में अवसर के दबाव में ऐसी बातें कई बार 'सूझ जाती हैं' जो बंद कमरे में लिखते हुए नहीं सूझ सकती हैं । और नामवर के कई भाषण, जिनकी रेकॉर्डिंग उपलब्ध है, इस बात के प्रमाण भी हैं । 

नामवर सिंह का सार्वजनिक जीवन इस अर्थ में विवादास्पद रहा कि कई बार वे उन मंचों पर भी गए जहाँ जाने से वाम प्रगतिशील वैचारिकी और प्रतिबद्धता ने सदा ही निषेध का मनोभाव रखा है । नामवर जब 90 साल के हुए तो दिल्ली के इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केंद्र की तरफ से एक भव्य आयोजन में उनका जन्मदिन मनाया गया । वे वहाँ पहुँचे और अपने आलोचकों को जवाब देते हुए कहा कि अब मैं 'सौ साल तक जीना चाहता हूँ' और उनकी 'छाती पर मूँग दलना' चाहता हूँ । 

नामवर के वहाँ जाने का विरोध इसलिए हो रहा था कि इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केंद्र का अध्यक्ष संघ से जुड़ा व्यक्ति है । नामवर ने इन आपत्तियों की अनसुनी की और वहाँ गए । नामवर का तर्क यह कि संस्था सरकारी है और जनता के पैसे से चलती है तो वहाँ क्यों नहीं जाना चाहिए और जब संसद में विरोधी विचार के लोग एक छत के नीचे बैठ सकते हैं तो यहाँ क्यों नहीं । दरअसल यह विवाद और इस जैसे तमाम अन्य विवाद पब्लिक डोमेन में लम्बी बहस की माँग करते हैं । सार्वजनिक जीवन की शुचिता का प्रश्न कोई इकहरा प्रश्न नहीं है कि जिसे एक फ़ॉर्मूले से डील कर लिया जाए । इसी तरह प्रगतिशील लेखक संघ के सम्मेलन में जब नामवर सरकारी नौकरियों में आरक्षण के प्रश्न पर जब यह कहते हैं कि इससे बाभन-ठाकुर के बच्चों को एकदिन भीख का कटोरा लेकर निकलना पड़ेगा तब उनका बयान नए विवादों को जन्म देता है । नामवर सिंह ने कुख्यात बाहुबली पप्पू यादव की किताब, द्रोहकाल का पथिक, का लोकार्पण किया तब भी इस बात को लेकर विवाद हुए । ऐसे बहुत सारे विवाद नामवर सिंह के नाम के साथ जुड़े रहे हैं । प्रगतिशील लेखक संघ ने नामवर को उनकी विवादित छवि के कारण ही राष्ट्रीय अध्यक्ष के पद से हटा दिया था ऐसा मेरे पढ़ने में आया था । नामवर दरअसल विवादप्रिय व्यक्ति रहे । नामवर के इन विचलनों को याद करते हुए हम यह न भूलें कि यह वही लिस्टबाज प्रगतिशील लेखक संघ है जिसकी लिस्ट में कभी त्रिलोचन जैसे कवि का नाम नहीं था । बहरहाल नामवर का कद किसी भी विवाद से बड़ा था । नामवर निर्विवादित रूप से एक श्रेष्ठ आलोचक हैं । 

अभी पिछले वर्ष ही सितम्बर में मैं, युवा कवि नवनीत सिंह के साथ जीयनपुर गया था । जीयनपुर गाँव की देहरी पर आगंतुकों की प्रतीक्षा करता वह विशाल नामवर सिंह द्वार अभी हमारी स्मृति में ताज़ा है । हम नामवर सिंह के पैतृक घर में घूम रहे थे । वह घर जहाँ नामवर पैदा हुए । घर के भीतर एक आंगन । एक पूरी बखरी । जाँता, ढेकी उस घर की देख रहे थे हम । ओसार देख रहे थे । दुआर पर घंटों बैठकर हम नामवर सिंह के परिवार की खेतीबारी संभालने वाले बुजुर्ग मनहीराम से  बतियाते रहे थे । जीयनपुर के लोगों की आँखों में नामवर सिंह के लिए गर्व का भाव देख रहे थे । और इस सितम्बर में यह स्मृति लेख लिखते हुए मुझे इकबाल का वह शेर याद आता है कि "हजारों साल नरगिस अपनी बेनूरी पे रोती है,बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदावर पैदा" । इकबाल के इस शेर की ही तर्ज़ पर कहें तो "बड़ी मुश्किल से होता है अदब में नामवर पैदा" । 


- नील कमल 

['अनहद' पत्रिका (सं. संतोष चतुर्वेदी) के जून 2020 अंक में प्रकाशित स्मृति लेख] 

Tuesday, May 16, 2023

चार कविताएँ


(१) अमलतास 

गुलमोहर ने

कुहनी गड़ा दी

अमलतास की कमर में,

और पलट कर

थपकी दी अमलतास ने

गुलमोहर की पीठ पर |

ठीक उसी वक्त

खिल उठा कनेर का चेहरा,

पीपल के होठों पर

उतर आई अजीब सी एक चमक,

एक बच्चा कटहल

हरी काँटेदार त्वचा वाला

उमग कर चिपका रहा

अधेड़ पिता के कंधे से

और उसके भीतर सोये

कोये गुदगुदी महसूस करते रहे

गुलमोहर की शरारत पर |

गुलमोहर और अमलतास

हँसते रहे, जैसे

बेखयाली में हँस-हँस कर

दोहरी हुई जाती हों

दो अल्हड़ सहेलियाँ |

वहीं कहीं

पराजित हो दुबका रहा

हिन्दी का एक किताबी मुहावरा

लाल-पीला होता रहा समय का चेहरा

गुस्से से नहीं, प्रेम से तृप्त और अघाया हुआ |

(२) श्रावण

आषाढ़-पिता की गोद से

अभी-अभी उतरा है श्रावण-शिशु |

पृथ्वी का सारा दुःख

पृथ्वी का सारा संताप

धुल गया है बारिश में |

फूलों में रंग है पहले से ज्यादा

पत्तियों में चमक रोज से ज्यादा |

नहा कर खिल उठी है पृथ्वी की देह,

मातृत्व के दर्प में चमकती हुई आदिम स्त्री देह |

(३) दुविधा – एक

उस वक्त

जबकि मेरी कनपटी पर

सटी थी आततायी की बंदूक

ईश्वर को नींद आ गई थी |

ईश्वर की शपथ लेकर

जिन्होंने जताई थी आस्था

दुनिया की सबसे मोटी किताब में

उनके लिए, उस वक्त

संविधान, कबाड़ी वाले के यहाँ

पड़ी किसी किताब से अधिक नहीं था |

तय मुझे करना था,

मारा जाऊँ, एक किताब में

लिखे शब्दों को बचाते हुए

या दोनों हाथ ऊपर कर दूँ |

(४) दुविधा – दो

सच बोलूँगा और मारा जाऊँगा

बोलूँगा झूठ तो थोड़ी देर और

रह जाऊँगा ज़िंदा |

चुप रहूँगा तो शायद

बचा रहूँ कुछ और दिन |

मेरे भीतर छुप कर बैठा

मिडिल क्लास आदमी

चाहता है साध लूँ चुप्पी

और निहायत ही मुश्किल लगे

अगर चुप रहना, तो बोल दूँ झूठ

और बच निकलूँ फिलहाल |

मेरे भीतर तभी सिर उठा कर

खड़ा होता है एक कवि

मेरा कवि मुझे सच कहने को तत्पर करता है |

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अनहद -6 (संपादक : संतोष चतुर्वेदी), इलाहबाद , में प्रकाशित

Thursday, January 26, 2023

आँधियाँ जिस तरह जानती हैं अरण्य को: प्रेमेन्द्र मित्र

आँधियाँ जिस तरह जानती हैं अरण्य को

                      तुमको उसी तरह जानता हूँ मैं,

तेज नदी की धारा को जिस तरह देखता है

                        आसमान का तारा

                        -वैसा ही मेरा देखना।

                         ठहरता नहीं हूँ मैं

मेरे लिए नहीं है आराम का कोई मतलब।


अपनी बेचैनी को मैं कैसे समझाऊँ!

बाती से खुलता है कहीं बिजली का अर्थ?

         सागर का अर्थ दे पाता है सरोवर?

एक अर्थ होता है पालतू पशु की आँखों में

 और ही एक अर्थ जंगली साँप के सीने में;


व्यर्थ है दोनों के बीच का मिलान

अपनी उद्दामता में ही मिलूँगा मैं;

छोड़ दो मुझे वश कर पाने का ख्याल;

              सहज कर पाने का ख्याल।


कौन जानता है मेरा जानना ही हो शायद

                         सचमुच का जानना।

डोल न उठे जबतक आसमान का भी शायद

                    तबतक नहीं कोई अर्थ,

पृथ्वी को भी डोलकर होना होता है सत्य 


तुम हो मेरा आसमान

-मेरे तेज बहाव में ही डोलती 

               तुम्हारी पहचान!


तुम ही मेरा अरण्य!


तुम ही मेरे झंझावातों का 

          ठौर और प्रतिबिम्ब।

[बांग्ला कविता: झड़ जेमोन कोरे जाने अरण्य के] 

कवि: प्रेमेन्द्र मित्र 

मूल बांग्ला से हिंदी अनुवाद: नील कमल 

Sunday, August 8, 2021

बनलता सेन व अन्य कविताएँ - जीवनानन्द दाश


★ बनलता सेन / जीवनानन्द दाश 

हजार वर्षों से मैं राह चलता रहा हूँ पृथ्वी की राह पर
सिंहल समुद्र से बहुत दूर मालय सागर के अँधियारे में
काफी चला हूँ मैं, बिम्बिसार अशोक की धूसर दुनिया में
रहा आया हूँ मैं वहाँ, और दूर विदर्भ नगरी के अँधियारे में
थकी एक रूह मैं, चारों ओर जीवन के समुद्र का फेन
मुझे ज़रा सा चैन देती थी, नाटोर की बनलता सेन ।


ज़ुल्फ़ें उसकी जाने कबकी विदिशा की अँधियारी रैन
चेहरा उसका श्रावस्ती का शिल्प, बहुत दूर सागर में
दिशा भूल वह नाविक जिसकी टूट गई पतवार
देखता हरी घास का देश आँख से दारचीनी द्वीप के अंदर
वैसे ही देखा उसको अँधियारे, पूछा उसने नैन उठाकर, 'कहाँ रहे इतने दिन'
परिंदे के बसेरे जैसी आँखों वाली वह बनलता सेन ।

समूचे दिन के आख़िर में, शबनम की आवाज़ सी
उतर आती है शाम, डैनों से धूप की गंध पोंछ डालती है चील
रंग सारे पृथ्वी के मिट जाने पर, क़लमी नुस्खा होता तैयार
किस्सों की ओट में, जुगनुओं की झिलमिल रोशनी में,
सारे परिंदे घर लौटते हैं - सारी नदियाँ, ख़त्म होता है इस जीवन का लेनदेन
रह जाता सिर्फ़ अँधियारा, रूबरू बैठने को बनलता सेन । 

मूल बांग्ला से अनुवाद: नील कमल 
                         (चित्र गूगल से साभार)

★ घास / जीवनानन्द दाश

नन्हे नींबू-पत्ते सी नर्म हरी रोशनी से
भर उठी है यह पृथ्वी इस भोर वेला में ।

कच्चे बाताबी सी हरी घास- वैसी ही ख़ुशबूदार-
हिरण दाँतों से नोंच लेते हैं ।

मेरा भी मन करता है इस घास की महक हरित मद्य सा
पीता रहूँ गिलास पर गिलास ।

सान दूँ इस घास के शरीर को- आँखों पर घसूँ आँखें,
घास के भीतर घास बन जन्म लूँ, निविड़ किसी घास-माँ की
देह के स्वाद भरे अंधकार से निकलकर ।

(बाताबी= नींबू की प्रजाति के एक फल का बांग्ला नाम, हिंदी में चकोतरा)
मूल बांग्ला से अनुवाद: नील कमल 

Monday, July 26, 2021

अव्वल तो मुझे वहाँ होना ही नहीं था (एक खुली चिट्ठी)


14 सितंबर 2020 का दिन । हिंदी दिवस के अवसर पर पश्चिम बंगाल सरकार की तरफ से राज्य के मुख्यमंत्री ने प्रेस-कॉनफ्रेंस के दौरान पश्चिमबंग हिंदी अकादमी के पुनर्गठन की घोषणा की । इस घोषणा के दौरान मुख्यमंत्री ने 25 सदस्यों की एक सूची का ऐलान किया जो नीचे दी जा रही है ।
आनंद बाजार समूह के समाचार चैनल पर यह घोषणा प्रसारित हो रही थी जिसका लिंक नीचे दिया जा रहा है ।

पच्चीस सदस्यों के नामों की चर्चा कोलकाता में साहित्य-संस्कृति से जुड़े लोगों के बीच स्वाभाविक रूप से होने लगी थी । एक मित्र के संदेश से मुझे मालूम हुआ कि इस सूची में मेरा भी नाम शामिल है । व्यक्तिगत रूप से यह जानकारी मेरे लिए अप्रत्याशित तो थी ही, कहना चाहिए कि यह कुछ हद तक एक झटके की तरह भी था । सत्ता प्रतिष्ठानों से मेरी अरुचि को मित्र जानते हैं । यह अनुमान का विषय है कि किसी न किसी स्तर पर मेरे नाम की अनुशंसा पश्चिम बंगाल सरकार के तथ्य एवं संस्कृति विभाग तक किसी ऐसे व्यक्ति ने की होगी जो मुझे जानता रहा हो ।  पश्चिमबंग हिंदी अकादमी का अतीत में भी पुनर्गठन होता रहा है । मजे की बात यह कि वही लोग मुख्य रूप से इस बार भी नामित किये गए थे थोड़े से कॉस्मेटिक बदलाव के साथ । अर्थात नई बोतल में पुरानी शराब । अवश्य एक सह-अध्यक्ष का नाम दिख रहा था जो नया था । मृत्युंजय कुमार सिंह साहित्य और कला के क्षेत्र में सक्रिय रहे हैं । साथ ही प्रियंकर पालीवाल, आशुतोष सिंह, ममता पाण्डेय जैसे साहित्य-संस्कृति से जुड़े मित्र भी दिख रहे थे । 

यहाँ मेरे सामने विकल्प दो थे । एक तो यह कि इस्तीफा दे दूँ और अलग हो जाऊँ । चूँकि किसी भी स्तर पर मेरी सहमति नहीं ली गई थी इस बाबत, इसलिए इस्तीफा देने में कोई परेशानी भी नहीं थी । दूसरे यह कि भीतर रहकर हस्तक्षेप की कोशिश करूँ । मित्रों से बात की तो राय बनी कि भीतर रहकर हस्तक्षेप किया जाए । अबतक अच्छा कुछ नहीं हुआ है पश्चिमबंग हिंदी अकादमी में लेकिन कोशिश तो की ही जा सकती है । जरूरी होगा तो इस्तीफा तो कभी भी दिया ही जा सकता है । 

इसी बीच पश्चिमबंग हिंदी अकादमी के लिए 5 करोड़ की राशि और उसके नए दफ्तर के आवंटन से संबंधी एक सरकारी घोषणा हुई और एक प्रशासनिक आदेश 23 सितंबर को जारी हो गया । वह आदेश नीचे दिया जा रहा है । 


तो तय यह हुआ कि नोटिफिकेशन जारी होने तक देखते हैं । भारी विस्मय की बात यह हुईं कि 14 सितंबर को मुख्यमंत्री द्वारा स्वयं घोषणा करने के बावजूद यह नोटिफिकेशन अंततः 12 अक्टूबर को जारी हुआ । हैरानी की बात थी कि नोटिफिकेशन में पूर्व-घोषित सह-अध्यक्ष सहित कई सदस्यों के नाम नहीं थे । दूसरे शब्दों में कहें तो इन नामों को हटा दिया गया था । वह नोटिफिकेशन नीचे दिया जा रहा है । 

 यह नोटिफिकेशन अपने आप में बहुत कुछ कह रहा था ।  मुख्यमंत्री की घोषणा के साथ-साथ जबकि नोटिफिकेशन आ जाना चाहिए था यहाँ मामला 14 सितंबर से 12 अक्टूबर तक क्यों खिंच गया ? क्या इसके पीछे कोई निहित उद्देश्य था ? इन प्रश्नों के साफ उत्तर नहीं मिल सकते थे । 

17 अक्टूबर 2020 को एक ह्वाट्सऐप ग्रुप हिंदी अकादमी की तरफ से श्री दीपक गुप्ता, सदस्य सचिव ने क्रिएट किया और इससे हमें जोड़ा । ग्रुप ऐडमिन, सदस्य सचिव व अध्यक्ष सहित कुछ ऐसे व्यक्ति भी थे जिनको मैं नहीं जानता था । तो इस ह्वाट्सऐप ग्रुप में सूचना पोस्ट हुई कि अकादमी की पहली बैठक 21 अक्टूबर 2020 को बंगाल क्लब में होगी । मैंने एजेंडा जानना चाहा । 

तय समय पर पश्चिमबंग हिंदी अकादमी की पहली बैठक बंगाल क्लब में हुई । आदतन मैं वहाँ तय समय से पहले पहुँचा । अध्यक्ष श्री विवेक गुप्ता और सदस्य सचिव श्री दीपक गुप्ता से वहीं मेरा प्रथम परिचय हुआ । उत्सव जैसा माहौल था बंगाल क्लब के उस सभागार में । सदस्यगण उत्साहित दिख रहे थे । सबके पास कुछ प्रस्ताव थे । अध्यक्ष ही मीटिंग का संचालन भी कर रहे थे जोकि कायदे से सचिव को करना चाहिए था । मीटिंग का मूड कुछ ऐसा था कि 5 करोड़ की लॉटरी लग गई है और इसे वित्तीय वर्ष के भीतर ही खर्च कर लेना है । मुझे सबसे आखिर में बोलने का अवसर मिला । मैंने पूछा कि पश्चिमबंग हिंदी अकादमी की नियमावली, उसका अपना संविधान क्या है । मैंने नोट किया कि यह बात अध्यक्ष को पसंद नहीं आई । मुझे याद है कि मैंने वहाँ यह भी कहा था कि जब हम किसी संस्था के साथ जुड़ते हैं तो उसके अच्छे कामों के साथ उसके बुरे कामों के इतिहास का बैगेज भी हमारे ऊपर होता है । मैं सदस्यों को अकादमी की दीर्घ अकर्मण्यता और उसकी व्यर्थता याद दिलाना चाह रहा था और साथ ही आसन्न चुनौतियाँ भी । मैंने वहाँ यह भी कहा कि जब मैं यहाँ से बाहर निकलूँगा तो मुझसे पूछा जाएगा कि पश्चिमबंग हिंदी अकादमी की मीटिंग ऐसे विलासबहुल जगह पर क्यों हो रही है । मुझे याद है कि मैंने बहुत साफ शब्दों में वहाँ रिफ्रेशमेंट के नाम पर आयोजित भोज में शामिल होने से इनकार कर दिया था और चाय तक नहीं पी । मैंने यह भी कहा कि आगामी किसी भी बैठक में न तो मैं चाय-नाश्ता में शामिल रहूँगा और न ही किसी किस्म का टीए-डीए क्लेम करूँगा । अगर इससे दो पैसे बचते हैं तो उन्हें अकादमी के काम में इस्तेमाल किया जाए । अपनी बात कहकर मैं मीटिंग से निकल आया था । 
अकादमी की दूसरी मीटिंग अगले ही महीने 30 नवंबर को सरकार द्वारा आवंटित हेमन्त भवन में  हुई जिसमें कई सदस्य ऑनलाइन जुड़े । ये दोनों ही बैठकें चर्चा के लिहाज से गंभीर बैठकें नहीं थी । अध्यक्ष का पूरा जोर इस बात पर रहता था कि जो फैसले उन्होंने लिए हैं उनको अमली जामा पहनाने के लिए सदस्यों की रजामंदी जैसे तैसे ले लेनी है ।  इस दरम्यान यह साफ हो चला कि अध्यक्ष काम कैसे करना चाहते हैं । मोटे तौर पर उन्होंने चार समितियाँ बनाने की बात कही जिसमें कौन लोग होंगे यह वे ही तय करेंगे और उनसे सीधे रिपोर्ट लेंगे । अध्यक्ष के द्वारा चुने समिति के संयोजक यदि जरूरी समझेंगे तो बाकी के सदस्यों के साथ मशविरा करेंगे । अर्थात बाकी सदस्यों की भूमिका बस इतनी रही कि वे समय समय पर आयें और प्रस्तावों का अनुमोदन कर अपने-अपने घर जाएँ । यह एक ऐसा मोड़ था जहाँ चुप नहीं बैठा जा सकता था । दिसम्बर 2020 और जनवरी 2021 के महीनों में अकादमी की कोई बैठक नहीं बुलाई गई थी । 

इस दरम्यान मैंने दो पत्र लिखे । एक तो पश्चिम बंगाल सरकार के तथ्य एवं संस्कृति विभाग के सचिव को, क्योंकि अकादमी इसी विभाग के अधीन काम करती है । दूसरा पत्र मैंने सीधे अकादमी अध्यक्ष को संबोधित करते हुए लिखा । ये दोनों ही पत्र मैंने ई-मेल के माध्यम से संबंधित व्यक्तियों को भेज दिया । ये दोनों ही पत्र यहाँ नीचे दिए जा रहे हैं । 

पत्र-1

पत्र- 2 


आगे की घटना यह कि पश्चिमबंग हिंदी अकादमी की तीसरी मीटिंग सिलीगुड़ी में 26 फरवरी को बुलाई गई । 

सिलीगुड़ी में होने वाली तीसरी मीटिंग कई मायनों में तात्पर्यपूर्ण रही । एक तो यह कि यह बैठक लगभग तीन महीनों के अंतराल पर होने जा रही थी । दूसरे 30 नवंबर की बैठक की कार्य-विवरणी इस बैठक से एकदिन पूर्व अर्थात 25 फरवरी को सदस्यों को ई-मेल के मार्फ़त भेजी गई थी । इसमें कई त्रुटियाँ और विरोधाभास थे । माहौल ऐसा था कि किसी भी दिन राज्य में विधानसभा चुनावों की घोषणा हो जाएगी और मॉडल कोड ऑफ कंडक्ट लागू हो जाएगा । 

मैंने सिलीगुड़ी की इस मीटिंग में शिरकत के लिए अपने स्तर पर पहले ही जाने-आने का रेल टिकट बुक कर लिया था और विश्राम के लिए न्यू जलपाईगुड़ी स्टेशन के पास ही एक साधारण से लॉज में एक कमरा भी बुक कर लिया था । 26 फरवरी की दोपहर तैयार होकर मैं सिलीगुड़ी के मैनाक टूरिस्ट लॉज पहुँच गया जहाँ पश्चिमबंग हिंदी अकादमी की तीसरी बैठक होने वाली थी । मैंने देखा कि काफी गहमागहमी थी वहाँ । अन्य सदस्यों के भोजन और आवास की व्यवस्था वहीं थी । कुछ लोग तो एकदिन पहले ही वहाँ पहुँचे हुए थे । बहरहाल यह मीटिंग इस अर्थ में खास थी कि इस मीटिंग की पूरी वीडियो रेकॉर्डिंग अध्यक्ष के निर्देश पर उनके विशेष सहायक कर रहे थे । इस मीटिंग से ऐन पहले सचिव सदस्य श्री दीपक गुप्ता, हिंदी अकादमी के दायित्व से अलग हो गए थे और नए सदस्य सचिव, मुकेश कुमार सिंह इस मीटिंग में पहली बार शिरकत कर रहे थे । 
इसी दिन शाम के वक़्त अकादमी द्वारा आयोजित नाट्य-उत्सव का उद्घाटन होना था जिसके लिए उमा झुनझुनवाला अपनी टीम के साथ यहाँ पहले से ही मौजूद थीं । मीटिंग के दौरान जानकारी मिली कि नाट्य उत्सव के लिए कलाकारों और टेक्नीशियंस का भुगतान किया जाना है जिसकी व्यवस्था नहीं हो पाई है । उमा झुनझुनवाला इस बात को लेकर काफी परेशान दिख रही थीं । अध्यक्ष ने सारा दोष पूर्व सचिव दीपक गुप्ता पर डालकर अपना पल्ला झाड़ लिया । नए सचिव मुकेश कुमार सिंह ने सूचित किया कि इसी दिन शाम को चुनावों की घोषणा हो जाएगी और तत्काल प्रभाव से मॉडल कोड ऑफ कंडक्ट भी लागू हो जाएगा, लिहाज़ा नाट्य उत्सव वाले आयोजन का क्या भविष्य होगा इस बाबत वे विभाग से बात करेंगे । भुगतान का मामला फँस चुका था क्योंकि नए सचिव के अनुसार उन्होंने अभी अपना अकादमी का प्रभार ग्रहण नहीं किया था । बहरहाल इस प्रकरण पर उमा झुनझुनवाला बेहतर रोशनी डाल सकती हैं । साधारण सदस्यों के पास अकादमी के आयोजन, उसकी तैयारी अथवा उसके बजट की कोई जानकारी नहीं थी लिहाजा वे उतना ही जान रहे थे जितना मीटिंग में सुन रहे थे । 

इसी मीटिंग में एक और बात घटित हुई और वो यह कि पश्चिमबंग हिंदी अकादमी के लिए उसकी नियमावली तैयार करने की जिम्मेदारी मुझे ही दे दी गई । संदर्भ के लिए पश्चिमबंग बांग्ला अकादमी की नियमावली की एक प्रति देते हुए अध्यक्ष ने इस काम के लिए मुझे 30 दिन का समय दिया । मैंने अध्यक्ष को टोकते हुए उन्हें आश्वस्त किया कि यह काम मैं अगले 15 दिन में ही कर दूँगा । मुझे याद है कि मीटिंग में हाजिर मेम्बरान ने तालियाँ बजाकर और मेजें थपथपा कर मेरे आश्वासन का स्वागत किया था ।

मीटिंग में अध्यक्ष ने जब मुझे बोलने को कहा तो मैंने सीधे डिक्शनरी के प्रकाशन के प्रसंग में यह सवाल उठाया कि पूर्व सचिव दीपक गुप्ता से मुझे ज्ञात हुआ है कि इस बाबत 4 करोड़ 19 लाख की राशि का अनुमोदन-प्रस्ताव सरकार को भेजा गया है, यह बात मीटिंग में कभी क्यों नहीं रखी गई । अध्यक्ष के लिए यह असहज करने वाला प्रश्न था । मीटिंग के दौरान इस प्रश्न पर काफी तीखा संवाद हुआ । कई सदस्यों की आँखें फैल गई थीं यह सुनकर । अध्यक्ष ने आक्रामक होते हुए इस बात से साफ इनकार किया और कहा कि जिसने आपको जानकारी दी है उसी से पूछिए । कहना चाहिए कि इस प्रसंग के बाद मीटिंग का छंद बिगड़ गया । जल्द ही मीटिंग खत्म हुई और लोगबाग भोजनकक्ष की तरफ बढ़ गए । मैं वहाँ से सीधे अपने होटल के कमरे पर आ गया । उसी शाम मुझे वापसी की ट्रेन पकड़नी थी । 

26 फरवरी वाली मीटिंग की कार्य-विवरणी 22 जुलाई तक अर्थात अकादमी में मेरे सदस्य रहते मुझे नहीं मिली थी । बहरहाल, यहाँ यह कह देना जरूरी है कि पश्चिमबंग हिंदी अकादमी के लिए नियमावली तैयार करने के लिए मैंने यहाँ की बांग्ला अकादमी के अतिरिक्त दिल्ली की हिंदी अकादमी की नियमावली का भी अध्ययन किया और ड्राफ्ट तैयार करके अकादमी अध्यक्ष सहित सभी सदस्यों को ई-मेल के मार्फ़त 9 मार्च 2021 को ही भेज दिया । भेजे गए ई-मेल का एक स्क्रीनशॉट नीचे दिया जा रहा है । 
इस ड्राफ्ट नियमावली को नीचे दिए गए लिंक पर जाकर देखा जा सकता है । 

यहाँ एक बात और दर्ज कर देनी चाहिए । इन्हीं दिनों मेरे मन में कई दफा यह ख्याल आता रहा कि मुझे अकादमी की सदस्यता से इस्तीफ़ा देकर इससे अलग हो जाना चाहिए । लेकिन परिस्थितियाँ ऐसी थीं कि चुनावी माहौल में इस्तीफे का गलत संदर्भ निकाला जा सकता था । माहौल ऐसा था उनदिनों कि राजनैतिक गलियारों में किसी भी इस्तीफे को राजनैतिक रंग देना स्वाभाविक था । हालांकि अकादमी उस तरह से राजनैतिक रंग वाली संस्था नहीं थी तथापि यह तथ्य है कि अकादमी अध्यक्ष स्वयं शासक दल की तरफ से विधायक प्रत्याशी थे और ऐसे में मेरा इस्तीफ़ा गलत राजनैतिक आशयों से जोड़ा जा सकता था । लिहाजा बहुत सोच विचार के बाद मैं इस ख्याल से उन दिनों विरत रहा । 

इस दरम्यान पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनाव हो गए और नई सरकार बन गई । बीते 21 जून 2021 को पश्चिमबंग हिंदी अकादमी के पुनर्गठन के बाबत एक नोटिफिकेशन जारी हुआ । यह नोटिफिकेशन नीचे दिया जा रहा है । 


21 जून 2021 को जारी नोटिफिकेशन के बाद एक महीने के अंतराल में कोई मीटिंग नहीं हुई और यह अकारण नहीं था । 22 जुलाई 2021 को पुनः पश्चिमबंग हिंदी अकादमी के पुनर्गठन के बाबत एक नया नोटिफिकेशन जारी होना था और कितनी अच्छी बात है कि मुझे इस बार यहाँ नहीं होना था । मेरे लिए यह वाकई बड़ी प्यारी बात थी । 

ये बातें यहाँ किसी व्यक्तिगत आग्रह से नहीं रख रहा हूँ बल्कि इसलिए रख रहा हूँ कि जितने भी दिन इस अकादमी का सदस्य रहा उन दिनों के लिए मेरी जवाबदेही राज्य के हिंदी समाज के प्रति है और राज्य के हिंदी समाज को यह जानने का पूरा हक है कि वहाँ रहते हुए मैंने क्या किया । 

और आखिर में दिल की बात कि.. अव्वल तो मुझे वहाँ होना ही नहीं था । साहिर लुधियानवी के लफ़्ज़ों में कहूँ तो, "तुम्हारी है तुम ही संभालो ये दुनिया" । 

- नील कमल 



Saturday, April 17, 2021

চারটি কবিতা


১.
কেন যে ঘুম ভেঙে যায়..

ঘুমোতে পারিনি অনেক রাত
এক দুঃস্বপ্ন কেবল তাড়া করে ।

লক্ষ লক্ষ মানুষ
পিঁপড়ের মতো হাঁটছে রাজপথে
রেল লাইনের ধারে ছড়িয়ে আছে
রক্তমাখা রুটি !

ক্লান্তমুখ ক্ষুধার্ত শিশুটি
মায়ের আঁচল ছেড়ে দিয়ে
আমার দিকে আঙ্গুল তুলে
প্রশ্ন করে, ঘুমোতে পারছ তুমি ?

মাত্র পাঁচ'শ টাকা তোলার জন্য
মায়ের বয়সী পাড়ার এক মহিলা
তিন ঘন্টা ধরে ব্যাংকের লাইনে দাঁড়িয়ে ।

ইউনিভার্সিটির গেটের বাইরে
আমার ছেলের বয়সী তরুণেরা
যাদের প্রেম করার কথা ছিল
যাদের গান গাইবার দিন ছিল
যাদের স্বপ্ন দেখার বয়স ছিল
তাঁরা মিছিলে হেঁটে চলেছে
পুলিসি জুলুমের প্রাতিবাদে ।

আমার চেনা সেই কাঠমিস্ত্রি
এসেছে বাড়িতে অনেকটা পথ হেঁটে
ভেসে উঠছে তাঁর মুখে কাজ হারানোর
এক অভাবনীয় যন্ত্রণা
আমি জানি ওর একটা কাজ চাই ।

চাকরি হারানো পাড়ার ছেলেটি
ভ্যানে করে মাছ বিক্রি করতে নেমেছে
হাঁক দিয়ে চলেছে সে, মাছ লাগবে মাছ !

একমুখ সাদা দাড়ি
হাফ পাঞ্জাবি পরা মানুষটি, এতকিছুর পরও
বলছেন মানুষ নাকি এখন ভীষন ভালো আছে
হাওয়াই চটি পায়ে, হাঁসিমুখ মহিলাটিও তেমনি
বলছেন মানুষ নাকি এখন ভীষন ভালো আছে ।

দিল্লি থেকে কলকাতা জুড়ে
এত এত উন্নয়নের গল্প সল্প
অথচ কবির ঘুম ভেঙে যায় মাঝরাতে ।

কলকাতা থেকে দিল্লি
যারা ক্ষমতায় মেতে আছে
তাদের উদ্দেশ্যে একটাই কথা

যে দেশে মানুষগুলি পিঁপড়ের মত হাঁটে
যে দেশে অবোধ শিশু না খেয়ে কষ্ট পায়
মায়েরা অল্প টাকার জন্য লাইনে দাঁড়ায়
যুবকেরা অকারণে পুলিসের তাড়া খায়
যে দেশে পাড়ার কাঠমিস্ত্রি কাজ পায় না
শিক্ষিত ছেলেরা মাছ বিক্রি করতে নামে
মাঝরাতে যে দেশে কবির ঘুম ভেঙে যায়

কারা ভালো আছে
কেমন করে তাঁরা ভালো আছে
কেউ কি বলতে পারবে আমায়
সত্যি সত্যি এটাকি ভালো দেখায় ?

মাঝরাতে কেন আমার ঘুম ভেঙে যায় !

২.
এমনটা তো
চাইনি আমি ।

মাথায় যাদের
বসিয়েছিলাম
বুকে যাদের
জড়িয়েছিলাম
যুদ্ধশেষে ছদ্মবেশে
পিঠে ছুরি মারবে তাঁরা
স্বপ্নে ভেবে পাইনি আমি ।

ঘর বেঁধেছি
নদীর বাঁকে
ঢেউ যেথা
খেলতে থাকে
জোয়ার ভাটা ওঠানামায়
ঘর বাঁচাতে পাইনি আমি ।

এমনটা তো চাইনি আমি ।

৩.
পৌষ মাসের কোনো এক নির্জন বিকেলে
মিষ্টি রোদ্দুর যখন মাঠের কোনে নাম না জানা
একটি ফুলের পিঠে হাত বুলিয়ে আদর করছিল
আমি গাছের সবুজ রঙে লিখেছি
নদীর লাজুক গালে একটি গোপন চিঠি
সে চিঠি আজও ভেসে চলেছে অনন্ত পথ ।

৪.
শীত এখনও বিদায় নেয় নি
সবুজ জামা গায়ে দাঁড়িয়ে পলাশ বন
বসন্ত কি হারিয়েছে কোথাও ?
এটা নাকি আগুনের ফুল ফোটার সময় ।
পলাশ না দেখে ফিরে আসতে আসতে
ভাবছি একটা এফআইআর করে যাব
বসন্তের নামে ।
- নীল কমল 
("তালতলের হাট", এপ্রিল ২০২১ সংখ্যায় প্রকাশিত)

Wednesday, January 13, 2021

उम्मीद न करें जनाब



इतना साधु कभी हो नहीं पाया
कि हत्यारे से कहूँ जाओ माफ़ किया

दुःख के पोखर में जिसने डुबोया
दुःख की नदी में डूबकर मरे यही चाहा

मुट्ठीभर फल खाने वालों के लिए
कोटि कोटि जन को कर्म की नसीहत करने वाले
धर्मग्रंथ को क्यों न फूँक कर ताप लूँ इसी जाड़े में

पिद्दी सी प्रजा हूँ तो क्या
जिस राजा ने नरक बनाया जीवन जन जन का
सरापता हूँ मर जाये जैसे ही करे अगला अन्याय

बेईमान न्यायाधीश लिखने को हो
जब कोई फैसला वंचित जन के हक़ के ख़िलाफ
कोढ़ फूटे उसकी अँगुलियों में और कलम छूट जाए

कवि से उम्मीद न करें जनाब
कि करेगा वह हुस्न और इश्क़ की बातें ऐसे वक़्त
तिलमिलाहट से न भर दे कागज पर छपी कविता
उसे कुत्ते की पूँछ में बाँध दीजिए ।

- नील कमल