"जो आलोचक कविता में अर्थवान शब्द की समस्त संभावनाओं की खोज किए बिना ही एक सामान्य वक्तव्य या संदेश के आधार पर किसी कविता पर मूल्य-निर्णय देने का दावा करता है, वह कविता का आलोचक नहीं है, न होगा" । 'कविता के नए प्रतिमान' पुस्तक के पृष्ठ-41पर दर्ज यह सूत्र वाक्य साहित्य आलोचना का एक मानदण्ड है और किसी भी नए आलोचक के लिए डायरी में लिख कर रखने योग्य है । नामवर सिंह प्रथमतः एक आलोचक थे । उनका साहित्यिक व्यक्तित्व विविधवर्णी और विराट है । मुझे लगता है खुद नामवर सिंह के मूल्यांकन के लिए यह जरूरी है कि एक सामान्य वक्तव्य या संदेश के आधार पर कोई मूल्य निर्णय न दिया जाए ।
नामवर के रूप कई हैं - आलोचक नामवर, कवि नामवर, अध्यापक नामवर, वक्ता नामवर, सम्पादक नामवर, लोकार्पणकर्ता नामवर, विवादित नामवर, मर्यादित नामवर आदि आदि । नामवर सिंह के व्यक्तित्व के पहलू इतने हैं कि उन्हें याद करते हुए इस बात का ध्यान रखना बेहद जरूरी हो जाता है कि हम उन्हें देख कहाँ से रहे हैं । अर्थात वह कोण जहाँ से हम नामवर सिंह को देखते हैं वह हमारे देखने की सीमा को तय करता है । नामवर सिंह के जीवन के आखिरी वर्षों के आधार पर उनके बारे में राय बनाना कुछ वैसा ही होगा जैसा कि क्रिकेट प्रेमियों का सुनील गावस्कर के बारे में उन्नीस सौ सत्तासी के विश्व कप टूर्नामेंट के मैचों में गावस्कर के प्रदर्शन के आधार पर अपनी राय बनाना। दो हजार दस के बाद हिंदी साहित्य में अपनी आँखें खोलने वाली जिस पीढ़ी ने नामवर सिंह को बाहुबली नेता पप्पू यादव की किताब का विमोचन करते देखा है, जिसने नामवर सिंह को भाजपा सरकार के मंत्रियों से सम्मानित होते देखा है, जिसने नामवर सिंह को पुरस्कार वापसी के खिलाफ बोलते सुना है, जिसने रवीश कुमार के प्राइम टाइम शो में नामवर सिंह को भगवान को याद करते हुए देखा है, उस पीढ़ी के लिए यह जरूरी है कि वह नामवर की बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय तक की यात्रा को भी गौर से देखे ।
नामवर सिंह एक विद्यार्थी के रूप में अपनी प्रतिभा के स्पार्क के साथ बीएचयू में आते हैं । यह हिंदी साहित्य का वह दौर है जिसमें हजारी प्रसाद द्विवेदी, और रामविलास शर्मा जैसे दिग्गज साहित्यिक अपनी पूरी आभा के साथ मौजूद हैं । इसी दौर में जयशंकर प्रसाद और निराला जैसे कवि और प्रेमचंद जैसे कथाकार की उपस्थिति से हिंदी का आकाश जगमग-जगमग सा है । आश्चर्य नहीं कि साहित्य में नामवर सिंह का प्रवेश भी गीतों के जरिए होता है । अपनी साहित्यिक अभिरुचि और इस क्षेत्र में आने का श्रेय नामवर सिंह अपने अध्यापकों को देते हैं जो उनको उदयप्रताप कॉलेज और बीएचयू में मिले । नामावर ने अपने आरंभिक साहित्यिक जीवन में अपभ्रंश साहित्य पर महत्वपूर्ण काम किया, पृथ्वीराज रासो पर काम किया । बीएचयू में अध्ययन के दौरान नामवर, हजारी प्रसाद द्विवेदी के न सिर्फ निकट आये बल्कि उनके प्रिय शिष्य भी बने । बीएचयू से अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद नामवर सिंह योग्यता के बावजूद पाँच साल तक बेरोजगारी के दिन बिताने को विवश हुए । इस बात को समझना होगा ।
नामवर सिंह स्वयं एक साक्षात्कार में संकेत करते हैं कि बीएचयू में जो लोग हजारी प्रसाद द्विवेदी को पसंद नहीं करते थे वे चाहते थे कि वे बीएचयू में प्राध्यापक न हो पायें। और तथ्य है कि नामवर की नियुक्ति तो अवश्य हुई बीएचयू में लेकिन वे वहाँ टिक नहीं सके । अंततः नामवर की बीएचयू की नौकरी नहीं बची । जिस बनारस ने नामवर को बनाया उसी बनारस में नामवर के लिए नौकरी नहीं थी । इस दंश को समझना कठिन नहीं है । बनारस से विस्थापन नामवर सिंह के जीवन का वह टर्निंग प्वाइंट है जहाँ से भविष्य के उस नामवर सिंह का बनना आरम्भ होता है जिसे हिंदी साहित्य की केंद्रीय और अनिवार्य उपस्थिति के रूप में लोग जानते और मानते रहे हैं । आपने खास अंदाज़ में नामवर बनारस छूटने के दर्द को विनोद करते हुए यूँ जाहिर करते हैं कि "भैरव का सोटा लगा तो बनारस छूट गया" । अपने अंतिम दिनों में नामवर सिंह बनारस लौटने की इच्छा भी व्यक्त करते हैं लेकिन नियति को वह स्वीकार्य नहीं था ।
कम लोग जानते हैं कि नामवर सिंह भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के कैंडिडेट के रूप में लोकसभा का चुनाव भी लड़े । वह बनारस का दौर था । चंदौली की लोकसभा सीट पर 1959 के मध्यावधि लोकसभा चुनाव में समाजवादी नेता राममनोहर लोहिया के खिलाफ नामवर चुनावी मैदान में थे । एक साक्षात्कार में नामवर सिंह बताते हैं कि पार्टी ने राम मनोहर लोहिया के खिलाफ उनको इसलिए उतारा था क्योंकि लोहिया कम्युनिस्टों के प्रति नकारात्मक रुख रखते थे । नामवर की हवा अच्छी बन रही थी । लोहिया ने कास्ट कार्ड खेल दिया और प्रभुनारायण सिंह के पक्ष में अपनी दावेदारी से हट गए । अब दो ठाकुर मैदान में थे । नामवर वह चुनाव हार गए । इसके बाद वे सक्रिय राजनीति में नहीं गए । लेकिन लेखक संगठन के मोर्चे पर वे बराबर हस्तक्षेप करते रहे ।
बीएचयू से बाहर होने के बाद नामवर सिंह जोधपुर विश्वविद्यालय में प्राध्यापक होकर गए । बाद में वे आगरा और अंततः जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में आये । और आये तो अपनी पूरी धमक के साथ आये । नामवर सिंह से हिंदी साहित्य पढ़ कर निकलने वाली कई पीढ़ियाँ आज देश के न जाने कितने संस्थानों में काम कर रही हैं ।
अपने विपुल लेखन से नामवर सिंह ने हिंदी साहित्य को न सिर्फ समृद्ध किया बल्कि आलोचना के क्षेत्र में नई स्थापनाएँ भी दी हैं । अपने समय की साहित्यिक बहसों में नामवर का हस्तक्षेप निर्णायक रहा है इस बात से किसे इनकार होगा । नामवर सिंह ने जितना लिखा उससे अधिक भाषण दिए । अब उनके भाषण भी पुस्तक रूप में प्रकाशित होकर आ रहे हैं । कहने वाले उन्हें वाचिक परम्परा का आलोचक भी कहते हैं । नामवर सिंह को जिन लोगों ने मंच से बोलते सुना है वे अवश्य मानेंगे कि वैसा कुशल वक्ता विरल होता है । सर्वविदित है कि किसी भी विषय पर नामवर से पहले बोलने के लिए खड़े होने वाले वक्ता को यह चिंता रहती थी कि जब नामवर बोलेंगे तो अपने तर्कों से उसकी स्थापनाओं को ध्वस्त कर देंगे । नामवर के बाद मंच पर आने वाले वक्ता की चिंता यह होती कि नामवर के बोलने के बाद उसके लिए अब कुछ बचा नहीं रह गया । ऐसा था नामवर के भाषणों का जलवा ।
नामवर के कट्टर विरोधी भी मानेंगे कि नामवर जैसा अध्ययनशील और ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में होने वाले अद्यतन विमर्शों के प्रति वैसा मननशील विद्वान हिंदी में दूसरा नहीं था । नामवर की दीप्त बौद्धिकता उनके समकालीन लेखकों विचारकों को आतंकित करती थी । इसका प्रमुख कारण यह था कि नामवर के जितना अध्ययन उनके समकालीनों में कम देखा गया । इसका स्वाभाविक परिणाम इस रूप में सामने आता कि नामवर अगर कह दें कि हिंदी में उपन्यास विधा अब मर गई है तो यह मान लिया जाता कि ऐसा ही है और अगले दिन से यह बात दोहराई जाने लगती । नामवर का यह कह देना कि अमुक कवि महत्वपूर्ण है बहुत वजन रखता था और लगभग नामवर की बातों को अकाट्य मान लिया जाता था । एक आलोचक के लिए इस कद को अर्जित करना कोई हँसी-ठट्ठा नहीं है ।
'कविता के नए प्रतिमान' पुस्तक के आने के साथ अगर मुक्तिबोध हिंदी कविता के केंद्र में मजबूती के साथ खड़े दिखाई देते हैं तो इसके पीछे नामवर सिंह की अपने समकालीन आलोचकों से लम्बी बहसों की भी अनिवार्य भूमिका को स्वीकार करना होगा । इन बहसों के प्रमाण इसी पुस्तक के अंदर देखे जा सकते हैं । तमाम किन्तु-परन्तु से हट कर यह तथ्य मुझे महत्व का लगता है कि एक आलोचक किस साहस के साथ तर्कों-विश्लेषणों से लैस होकर एक कवि को उसका न्याय्य अधिकार दिलाने के लिए वैचारिक लड़ाई लड़ता है । इसी पुस्तक में पृष्ठ 251 पर नामवर सिंह लिखते हैं - 'यह विडम्बना अवश्य देखता हूँ कि जिस व्यक्तिपरक-आत्मपरक काव्य-सिद्धांत का खंडन कविता के नए प्रतिमान में आद्यंत अनुस्यूत है उसी का मुझे समर्थक बताया जाता है । इसे दृष्टिदोष कहने की अपेक्षा अपनी वाणी की दीनता चीन्ह कर चुप रह जाना ही श्रेयस्कर है ।' मुक्तिबोध की लम्बी कविताओं के ढाँचे और उनकी अंतर्वस्तु पर रामविलास शर्मा की अनेक आपत्तियों का सधा हुआ और सुचिंतित उत्तर नामवर सिंह देते हैं और ऐसा करते हुए कहीं भी आक्रामक नहीं होते । यह एक बड़े आलोचक की पहचान है । हिंदी में ऐसे विद्वानों की कमी नहीं जिनको 'कविता के नए प्रतिमान' कमज़ोर किताब मालूम होती है और जिनको ऐसा लगता है कि नामवर की यह किताब पुरस्कार के लिए दो तीन हफ्ते में लिखी गई किताब है और इसमें मौलिक कुछ नहीं है । ऐसे विद्वानों के लिए मेरा विनम्र प्रस्ताव है - दो तीन हफ्ते के लिए आपके भोजन-आवास आदि की व्यवस्था मेरी, आइए आप और कविता के नए प्रतिमान जैसी आलोचना की एक किताब लिख कर दीजिए ।
नामवर सिंह के साथ मेरी पहली और एकमात्र भेंट कायदे से संभव हुई 2015 के फरवरी में । उससे पहले उन्हें करीब से सुनने और देखने के अवसर तो बहुत से आये थे लेकिन उनसे मिलने में हमेशा एक संकोच बना रहा । कविताओं का पहला संग्रह जब 2010 में आया तो डरते-डरते उसकी एक प्रति नामवर जी के पते पर भी भेजी गई । भेजने के बाद बात आई गई हो गई । यह प्रत्याशा तो बिलकुल भी नहीं थी कि वे किताब को देखेंगे या उसपर कोई प्रतिक्रिया उनकी ओर से आ सकती है । लेकिन हुआ यह कि एक दिन सुबह दोस्तों के फोन आने लगे । पता चला कि अभी थोड़ी देर पहले दूरदर्शन पर "हाथ सुंदर लगते हैं" किताब पर नामवर सिंह के साथ मदन कश्यप की बातचीत प्रसारित हुई है । यह अप्रत्याशित था और साथ ही सुखद भी । सोचा कि कम से कम उनको धन्यवाद तो कहना चाहिए । पहली बार नामवर जी को फोन किया । उधर से उनकी गंभीर आवाज़ आई - "बहुत अच्छा लिख रहे हो । ऐसे ही लिखते रहो" । मैंने अफसोस जाहिर किया कि सूचना न होने के कारण वह प्रोग्राम देख नहीं सका । वे बोले - "थोड़ी सी बातचीत कर ली तो ऐसा कौन सा तीर मार लिया कि फोन करके सूचना दी जाए" । यह सब मैं नामवर सिंह के मुँह से सुन रहा था, अपने समय के उस साहित्यिक से सुन रहा था जिसे हिंदी आलोचना का शिखर पुरुष कहा जाता है । कलकत्ता के दोस्तों में इस बात को लेकर चर्चा होती रही । एक तरफ बधाइयाँ देने वाले तो दूसरी ओर ईर्ष्या से भर जाने वाले मित्र । यह सब देखना सुनना एक नया अनुभव था । उन्हीं दिनों एक मित्र ने यह बात चला दी कि नामवर सिंह ने नील कमल पर बात इसलिए कि क्योंकि यह भी "सिंह" है और बनारस से है । एक किस्सा यह भी चला कि नील कमल का प्रकाशक बहुत प्रभावशाली है, उसी ने नामवर सिंह से सिफारिश की होगी । तो इन किस्सों का लब्बोलुआब यह कि नामवर सिंह का किसी कवि की पहली किताब का संज्ञान लेना हिंदी समाज में एक हैरतअंगेज बात रही है । इन बातों से अलग नामवर सिंह का एक सहृदय आलोचक होना मेरे लिए उनके विराट व्यक्तित्व का वह पक्ष था जिसपर हिंदी के साहित्यिक परिवेश में चर्चा कम होती है । उन्हें उठाने गिराने वाले साहित्यिक सत्ता केंद्र की तरह ही प्रक्षेपित किया जाता रहा है । बहरहाल मेरे व्यक्तिगत अनुभव में जो बात आई वो यह कि नामवर सिंह की पहुँच में नये से नया कवि भी है । और किसी कवि के लिए जिसकी अभी पहली ही किताब आई हो इससे प्रीतिकर बात और क्या हो सकती है कि नामवर सिंह ने उसे पढ़ा और पढ़ कर प्रतिक्रिया दी । बाद इसके यदा-कदा नामवर जी से फोन पर बात हो जाती । अक्सर मैं उनसे उनके स्वास्थ्य के बारे में पूछता और वे अनिवार्य रूप से यह पूछते कि अगली किताब कब आ रही है । दूसरे संग्रह के साथ जब मैंने स्वप्रकाशन का काम शुरू किया और जब 2014 में "यह पेड़ों के कपड़े बदलने का समय है" छप कर आया तो उसकी प्रति नामवर सिंह के पते पर भी पोस्ट की । एकदिन सुबह-सुबह नामवर सिंह का फोन आया । आश्चर्य और खुशी से फोन उठाया । उधर नामवर जी की गंभीर आवाज़ थी - "अभी सुबह नहा-धोकर तुम्हारा संग्रह पढ़ने बैठा हूँ । छपाई बहुत छोटी है इसलिए मैग्निफाइंग ग्लास से पढ़ना पड़ रहा है । बहुत अच्छी कविताएँ हैं । यह कविता अभी देख रहा हूँ - इस नये भूखण्ड में" । और वे 'इस नये भूखण्ड में' कविता को पढ़कर मुझे सुनाते रहे । मैं चुपचाप सुनता रहा । मैं उन्हें यह बात कह नहीं सका कि दरअसल किताब की छपाई की लागत कम करने के लिए फॉण्ट छोटा रखना पड़ा । लेकिन यह बात भविष्य में ध्यान रखने की थी कि आगे जब भी किताब छापूँ तो फॉण्ट इतना छोटा न रखा जाए कि किसी बुज़ुर्ग को उसे पढ़ने के किए यूँ कष्ट उठाना पड़े । नामवर सिंह आपको पढ़ रहे हैं यह खुशी संसार के किसी भी बड़े ईनाम से बढ़कर है और यह खुशी मेरे हिस्से में आई । कुछ समय बाद एकदिन कवि मदन कश्यप ने सूचना दी कि अगले हफ्ते नामवर जी के साथ "यह पेड़ों के कपड़े बदलने का समय है" पर बातचीत दूरदर्शन पर प्रसारित होगी । इससे भी बड़ी जानकारी उन्होंने यह दी कि बातचीत किसी अन्य किताब पर तय थी लेकिन नामवर जी ने कहा कि आज उसपर नहीं इसपर बात करेंगे । और इस तरह झटपट वाली तैयारी में मदन जी ने वह बातचीत रेकॉर्ड की । अगले ही साल यानी 2015 में दिल्ली के बुक फेयर का कार्यक्रम बना तो इसके पीछे उद्देश्य नामवर सिंह से उनके घर पर जाकर मिलना था । फोन पर उनसे मैंने कहा कि दिल्ली आऊँगा तो आपके साथ कुछ घण्टे व्यतीत करना चाहूँगा और उन्होंने सहर्ष इसबात की अनुमति दी और कहा कि दिल्ली पहुँच कर उनको फोन कर लूँ । दिल्ली पहुँचा तो सबसे पहले नामवर सिंह को फोन किया और बताया कि आ गया हूँ । उन्होंने कहा कि आप ग्यारह बजे आ जाइये । शिवालिक अपार्टमेंट में नामवर जी के कमरे की घण्टी बजाई तो दरवाज़ा उन्होंने ही खोला और मना करने के बावजूद किचेन से एक ग्लास में पानी लेकर आये । फिर बातचीत शुरू हुई तो समय कैसे बीतता गया पता ही नहीं चला । यह एक समृद्ध करने वाली मुलाकात थी और मैं नामवर जी से इस सुखद भेंट की स्मृति को अपने लेखकीय जीवन की एक बड़ी घटना मानता हूँ । वहाँ से चलते-चलते कथाकार गौतम सान्याल किसी प्रयोजन से नामवर जी के यहाँ उपस्थित हुए । सम्भवतः बुक फेयर के किसी आयोजन में निमंत्रित करने के लिए पधारे थे । मेरे आग्रह पर नामवर जी के साथ एक फ़ोटो उन्होंने मेरे मोबाइल फोन से लिया जो आउट-ऑफ़-फ़ोकस होने के बावजूद मूल्यवान धरोहर है । एकाध फ़ोटो नामवर जी के मैंने भी इस भेंट की याद सँजोने के लिहाज से ले लिए थे उस दिन । यह नामवर सिंह के घर पर उनसे पहली और अंतिम भेंट साबित हुई । फोन पर जब भी बात हुई तो उन्होंने आने वाली किताब के बारे में पूछा । बाद के वर्षों में उनके गिरते स्वास्थ्य की खबरों से पूरा हिंदी संसार चिंतित होता रहा । रवीश कुमार के प्राइम टाइम में नामवर सिंह को देख कर मन बेहद दुखी रहने लगा । वे अपने अंतिम समय तक किताबों के बीच रहे । और उनके बाद उनकी किताबों का क्या होगा इसके लिए वसीयत भी कर गए । उनकी किताबें अब एक पुस्तकालय का हिस्सा होंगी जिससे हिंदी के विद्यार्थी और शोधार्थी लाभान्वित होंगे ।
मेरा मानना है कि नामवर की निर्मिति को समझने के लिए तत्कालीन बनारस और उत्तर प्रदेश के साथ ही देश की सामाजिक-राजनैतिक व्यवस्था की गहरी और सूक्ष्म जानकारी आपके पास होनी चाहिए । वह दौर ऐसा था जब आजादी के बाद नेहरू के नेतृत्व में कांग्रेस अपने सबसे चमकदार समय में देश की राजनीति में असरदार भूमिका में थी । बनारस सहित पूरे उत्तर प्रदेश की राजनीति में ब्राह्मणवाद की तसदीक उस दौर का कोई भी व्यक्ति कर सकता है । जाति आधारित व्यवस्था में इस ब्राह्मणवाद से अकादमिक संस्थाएँ भी अप्रभावित नहीं रह सकती थीं । 'अन्य' के लिए उस समय महत्वपूर्ण स्थानों तक जा पाना कितना कठिन रहा होगा इसकी कल्पना की जा सकती है । नामवर की विकट प्रतिभा इस ढाँचे के बीच विकसित होती है और कालान्तर में इस ढाँचे को चुनौती भी देती है । वे प्रगतिशील-वाम चेतना से उद्बुद्ध होकर आते हैं इसलिए अनिवार्य रूप से इन चुनौतियों से टकराते हैं । बिना लाग-लपेट के मुझे यहाँ कह देना चाहिए कि नामवर हिंदी में उसी तरह से आते हैं जिस तरह से ब्राह्मण ऋषियों के बीच विश्वमित्र। अनिवार्य रूप से उनका टकराव अपने समय के वशिष्ठों से भी होता है । नामवर का तप ही उन्हें विश्वमित्र की भाँति ऋषितुल्य बनाता है । कहना न होगा कि हिंदी की कामधेनु को लंबे समय तक नामवर ने अपने अधिकार में रखा और इन्हीं अर्थों में वे हिंदी में नायक की तरह स्थापित भी हुए ।
लेकिन जैसा कि हम जानते हैं इतिहास का हर नायक उत्त्थान और पतन के दौर से गुजरता है । नामवर को भी इन्हीं सबके बीच से गुजरना था । नामवर सिंह के पास अपने प्रिय लोगों को उपकृत और लाभान्वित करने की ताकत थी जिसका उपयोग भी उन्होंने किया । जिन प्रवृत्तियों का विरोध झेलते हुए नामवर सिंह यहाँ तक आते हैं उनका प्रतिकार करते हुए उनके ही जैसा कुछ-कुछ अगर वे भी बन जाते हैं तो इसे वर्चस्व के अपने तकाजे के तौर पर देखा जाना चाहिए । इन सबके बीच से अपने को परिष्कृत करते हुए आगे चलना ही असल चुनौती होती है । नामवर इन चुनौतियों को बखूबी जानते थे । नामवर सिंह इस बात को महसूस करते थे कि उन्हें वाचिक परम्परा का आलोचक कहने वाले प्रशंसा के रूप में ऐसा नहीं कहते बल्कि निंदा के रूप में ही कहते हैं । एक साक्षात्कार में वे कहते हैं कि - वाचिक परम्परा अशोक जी (संभवतः अशोक वाजपेयी) ने चला दिया । जो भी हो यह जुमला नामवर सिंह से जुड़ गया । इसके कारणों के विषय में सोचता हूँ तो पाता हूँ कि यह नामवर सिंह की मजबूरी नहीं बल्कि उनका सचेत चुनाव ही हो सकता है । नामवर सिंह में वह प्रतिभा थी जो उन्हें किसी भी साहित्यिक आयोजन की शान बनाती थी और निश्चित रूप से वे इसे इंज्वॉय भी करते रहे होंगे । ठहर कर व्यवस्थित लेखन उनसे छूटता गया । इसकी एक वजह मेरी दृष्टि में यह बनती है कि कालान्तर में हिंदी का काव्य परिदृश्य औसत कवियों से भरता चला गया । ये कवि नामवर के लिए वह चुनौती नहीं पेश कर रहे थे जो प्रगतिशील कविता और उससे आगे नयी कविता के दौर के कवि अपने समय में पेश करते रहे थे । नामवर सिंह खुद इस बात को मानते रहे हैं कि 1950 से लेकर 1964 के दौर में, जब वे बनारस में थे और जीवन-जीविका के संघर्ष के साथ उस दौर की साहित्यिक बहसों से जुड़ रहे थे और जब वे कविता छोड़ कर आलोचना में उतरे थे तब यह समय की माँग और समय के दबाव में ही संभव था । परिस्थितियों की एक बड़ी भूमिका रही है नामवर के लेखन में । बाद के वर्षों में जब नामवर जोधपुर और दिल्ली की अपनी यात्रा के दौर से गुजरते हैं तबतक युगीन परिस्थितियाँ बदल चुकी होती हैं । आलोचक को चुनौती दे सकने वाले लेखन का वह दौर बीत रहा होता है । औसत मेधा की प्रतिष्ठा के दौर में नामवर लिखने से बोलने की तरफ प्रवृत्त हुए होंगे ऐसा मेरा मानना है । यह बीच का रास्ता है जिसे कम्प्रोमाइज़िंग स्ट्रैटेजी भी कह सकते हैं । एक और कारण इसका यह भी विचारणीय हो सकता है कि अकादमिक और प्रशासनिक दायित्वों ने नामवर को वह समय नहीं दिया होगा जिसमें व्यवस्थित लेखन सम्भव हो, लेकिन यह कारण उतना महत्वपूर्ण तो नहीं हो सकता है ।
एक और बात जिसे लेकर वितर्क होता रहा है वह नामवर सिंह के पुस्तक लोकार्पण के हेतु सबसे अधिक डिमांड में रहने को लेकर है । एक साक्षात्कार में निर्मला जैन के आरोपों को डिफेंड करते हुए नामवर सिंह कहते हैं - 'आशीर्वादीलाल तो मैं नहीं हूँ' । लेकिन सच तो यह है कि नामवर के आशीर्वाद के प्रार्थी लेखकों की संख्या इतनी बड़ी है कि यह हिंदी के किसी भी लेखक के लिए ईर्ष्या का कारण भी हो तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए । नामवर के साथ एक फोटो खिंचवा लेने के लिए, नामवर के हाथ में अपनी किताब देख पाने के लिए और नामवर के मुँह से अपनी चर्चा सुन पाने के लिए हिंदी के लेखकों में एक प्रबल भावना तो रही है, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता । यह भी सोचने की बात है कि आखिर क्यों नहीं किसी अन्य हिंदी लेखक के साथ यह ग्लैमर जुड़ा । कलकत्ता की एक साहित्यिक सभा में संचालक ने नामवर सिंह को हिंदी का अमिताभ बच्चन कहा तो हॉल तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठा । उसके बाद नामवर अभिनय और साहित्य दोनों कलाओं के बीच के साझा रिश्ते पर बोले और निष्कर्ष यह निकला कि लेखक और अभिनेता के बीच 'नट' एक ऐसा तत्व है जो उनको जोड़ता है । नामवर की हाजिरजवाबी का कोई जोड़ नहीं था । वे यह मानते रहे हैं कि सभाओं में अवसर के दबाव में ऐसी बातें कई बार 'सूझ जाती हैं' जो बंद कमरे में लिखते हुए नहीं सूझ सकती हैं । और नामवर के कई भाषण, जिनकी रेकॉर्डिंग उपलब्ध है, इस बात के प्रमाण भी हैं ।
नामवर सिंह का सार्वजनिक जीवन इस अर्थ में विवादास्पद रहा कि कई बार वे उन मंचों पर भी गए जहाँ जाने से वाम प्रगतिशील वैचारिकी और प्रतिबद्धता ने सदा ही निषेध का मनोभाव रखा है । नामवर जब 90 साल के हुए तो दिल्ली के इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केंद्र की तरफ से एक भव्य आयोजन में उनका जन्मदिन मनाया गया । वे वहाँ पहुँचे और अपने आलोचकों को जवाब देते हुए कहा कि अब मैं 'सौ साल तक जीना चाहता हूँ' और उनकी 'छाती पर मूँग दलना' चाहता हूँ ।
नामवर के वहाँ जाने का विरोध इसलिए हो रहा था कि इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केंद्र का अध्यक्ष संघ से जुड़ा व्यक्ति है । नामवर ने इन आपत्तियों की अनसुनी की और वहाँ गए । नामवर का तर्क यह कि संस्था सरकारी है और जनता के पैसे से चलती है तो वहाँ क्यों नहीं जाना चाहिए और जब संसद में विरोधी विचार के लोग एक छत के नीचे बैठ सकते हैं तो यहाँ क्यों नहीं । दरअसल यह विवाद और इस जैसे तमाम अन्य विवाद पब्लिक डोमेन में लम्बी बहस की माँग करते हैं । सार्वजनिक जीवन की शुचिता का प्रश्न कोई इकहरा प्रश्न नहीं है कि जिसे एक फ़ॉर्मूले से डील कर लिया जाए । इसी तरह प्रगतिशील लेखक संघ के सम्मेलन में जब नामवर सरकारी नौकरियों में आरक्षण के प्रश्न पर जब यह कहते हैं कि इससे बाभन-ठाकुर के बच्चों को एकदिन भीख का कटोरा लेकर निकलना पड़ेगा तब उनका बयान नए विवादों को जन्म देता है । नामवर सिंह ने कुख्यात बाहुबली पप्पू यादव की किताब, द्रोहकाल का पथिक, का लोकार्पण किया तब भी इस बात को लेकर विवाद हुए । ऐसे बहुत सारे विवाद नामवर सिंह के नाम के साथ जुड़े रहे हैं । प्रगतिशील लेखक संघ ने नामवर को उनकी विवादित छवि के कारण ही राष्ट्रीय अध्यक्ष के पद से हटा दिया था ऐसा मेरे पढ़ने में आया था । नामवर दरअसल विवादप्रिय व्यक्ति रहे । नामवर के इन विचलनों को याद करते हुए हम यह न भूलें कि यह वही लिस्टबाज प्रगतिशील लेखक संघ है जिसकी लिस्ट में कभी त्रिलोचन जैसे कवि का नाम नहीं था । बहरहाल नामवर का कद किसी भी विवाद से बड़ा था । नामवर निर्विवादित रूप से एक श्रेष्ठ आलोचक हैं ।
अभी पिछले वर्ष ही सितम्बर में मैं, युवा कवि नवनीत सिंह के साथ जीयनपुर गया था । जीयनपुर गाँव की देहरी पर आगंतुकों की प्रतीक्षा करता वह विशाल नामवर सिंह द्वार अभी हमारी स्मृति में ताज़ा है । हम नामवर सिंह के पैतृक घर में घूम रहे थे । वह घर जहाँ नामवर पैदा हुए । घर के भीतर एक आंगन । एक पूरी बखरी । जाँता, ढेकी उस घर की देख रहे थे हम । ओसार देख रहे थे । दुआर पर घंटों बैठकर हम नामवर सिंह के परिवार की खेतीबारी संभालने वाले बुजुर्ग मनहीराम से बतियाते रहे थे । जीयनपुर के लोगों की आँखों में नामवर सिंह के लिए गर्व का भाव देख रहे थे । और इस सितम्बर में यह स्मृति लेख लिखते हुए मुझे इकबाल का वह शेर याद आता है कि "हजारों साल नरगिस अपनी बेनूरी पे रोती है,बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदावर पैदा" । इकबाल के इस शेर की ही तर्ज़ पर कहें तो "बड़ी मुश्किल से होता है अदब में नामवर पैदा" ।
- नील कमल
['अनहद' पत्रिका (सं. संतोष चतुर्वेदी) के जून 2020 अंक में प्रकाशित स्मृति लेख]